माँ का होना-न होना









तुम्हारा जाना बहुत अखर रहा है माँ!
अनुपस्थिति है फिर भी है उपस्थिति का एहसास. 
होने न होने के बीच डोलते मनोभाव!
कैसे कहूँ! तुम थीं तो सोचता था कब आयेगा तुम्हारा वक्त,
बिस्तर साफ़ करना,धोना, पोछना, नहलाना, खिलाना, पिलाना 
उकता गया था मै तुम्हारे इन कामों से,
तंग आ गया था तुम्हारे बार-बार आवाज़ देने से,
तुम्हारी कराह से नींद टूटती थी मेरी
कोसता था; तुमको, खुद को और इन परिस्थितियों को.
आज तुम नहीं हो फिर भी है तुम्हारा एहसास,
तुम्हारा होना इस कमरे में तैर रहा है,
फ़ैली है गन्ध चारों ओर,
महसूसता हूँ तुम्हे अपने भीतरी-अपने बाहर.
अब कोसता हूँ खुद को कि;
क्योँ नहीं तुम्हारे होने का जश्न मना पाया माँ !
जैसे तुमने मनाया था जश्न मेरे होने का
अपने भीतर- अपने बाहर.

(picture credit Google)

टिप्पणियाँ

  1. यथार्थपरक शब्दचित्र !
    माँ को समर्पित आपकी रचना का संदेश मार्मिक है।
    अच्छा और गंभीर लिखती हैं आप।
    लिखते रहिये।
    बधाई एवं शुभकामनाऐं।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी प्रतिक्रिया रचना के मूल्यों की व्याख्या करती है.आप की सराहना और बेहतर लिखने के लिये प्रेरित करती है मुझे.मार्गदर्शन की अपेक्षा करती हूं आपसे.सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. माँ और बच्चे प्रतिकूल होते हैं हमेशा ... एक दूजे के अंदर बाहर वही आत्मसात होते हैं ... और माँ के जाने के बाद उसका एहसास सालता है ...

    जवाब देंहटाएं
  4. नासवा जी, ब्लॉग पर आने और रचना पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए सादर आभार.

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर मन को भीगाती आपकी सुंदर रचना अपर्णा जी।

    जवाब देंहटाएं

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