दूसरी औरत से प्रेम



वो जो चली गयी है अभी अभी तुम्हे छोड़कर,
है बड़ी हसीन !
जैसे नए बुनकर की उम्मीद,
उँगलियों से बुने महीन सूत के जोड़ सी। 
जब भी तुम चूमना चाहते हो मुझे,
उसके होंठ..... 
मुझे तुम्हारे होठों पर नज़र आते हैं;
और उसके गालों का गुलाबीपन .....
छा जाता है मेरे वजूद पर.
उसके इत्र की खुशबू .......
कमबख्त जाती ही नहीं इस कमरे से .
जब भी थामना चाहती हूँ तुम्हारा हाँथ........
उसकी नाज़ुक उंगलियाँ 
मेरे तन में सरगम छेड़ देती हैं.
वो हार तो गयी है मुझसे ....
हमारे जायज़ रिश्ते को बचाने के लिए;
पर मै उसके प्रेम में गुम सी गयी हूँ.

(picture credit- google)

टिप्पणियाँ

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  2. गज़ब की बेबाक अभिव्यक्ति आपकी अपर्णा जी।
    अलग विषय पर आपका लेखन नयापन लिये हुये।

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  3. आभार श्वेता जी, कविता पर विचार व्यक्त करने के लिये. सादर

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  4. बहुत खूब ... कल्पना कहा कहाँ तक जाती है ...
    कोई बंधन रिश्ता नहीं देखती प्रेम की मार ...

    जवाब देंहटाएं
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