कटे हुए हाँथ


कटे हुए हाँथ 
मचलने लगते हैं कभी -कभी 
सच को साबित करने के लिए.
उतावले होकर कोशिश करते हैं 
कानून का गला पकड़ने की.
बार बार चीखते हैं,
करते हैं नाद
भरी सभा में,
फिर भी झूठ का अट्टहास 
बंद कर  देता है उनका मुंह,
खुद से रिसते हुए लहू को 
साक्ष्य  के तौर पर पेश करने के बावजूद 
ज़िंदा नहीं माना जाता उन्हें,
कटे हुए हांथ थाम लेते हैं मशाल;
कभी - कभी हथियार भी, 
अपनी बात कहने के लिए 
हवा में भरते हैं उड़ान 
चिढ़ाते हैं जुड़े हुए हांथों को 
कि उनके पास 
लालच की चूड़ियाँ नहीं होती।

(Picture credit google)


टिप्पणियाँ

  1. खुद को सच्चा साबित करने के प्रयास मे बेबस इंसानियत के अंदर धुट रही मानसिक संताप को बखूबी पेश किया आपने....कटे हुए हाथ इस पंक्ति ने कविता को प्रभावशाली बना दिया..!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अनीता जी. रचना पर इतनी सुखद प्रतिक्रिया देने के लिये आभार.
      सादर

      हटाएं
  2. सच भी पंगु और लाचार हो कितना विवश हो जाता है चीखता चिल्लाना है पर कोई नही सुनता, व्यवस्था पर चोट करती विलक्षण रचना।
    अप्रतिम।
    शुभ संध्या।

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21-12-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2824 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन खूबसूरत पंक्तियाँ

    जवाब देंहटाएं
  5. पंगु व्यवस्था से दो - दो हाथ करते '' कटे हाथ '' प्रतीक हैं एक सशक्त ममानसिकता के | बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना प्रिय अपर्णा |

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मृत्यु के बाद एक पल

आहिस्ता -आहिस्ता

प्रेम के सफर पर