तन के उस पार ( लघु कथा)


वो रात बहुत चमकीली थी जब नदी के किनारे तुमने धीरे से मेरा हाँथ छुआ था और मुझे अपने साथ होने का एहसास दिलाया था. मै भटक रही थी अकेली .... वंहा कोइ नहीं था जो मेरे साथ होता. मेरा हाँथ थामता, मुझे गले से लगाता, बस मै तड़प रही थी उस भयानक अकेलेपन में. नदी की धार मेरी ज़िंदगी को अपने साथ ले जा रही थी, हवाएं मुझे बेचैन करती थी, पानी की कलकल मेरे ज़ख्मों पर नमक छिड़कती थी. मुझे शांति चाहिए थे, लोगो के बीच वाली, अकेलापन चाहिए था शोर-शराबे वाला. कोइ नहीं था जो मेरे साथ होता.नदी पार करने वाले मुसाफ़िर आते और चले जाते, ठहरता कोइ नहीं. उस रात जब तुम आये, लगा जैसे कितने जन्मों से मै तुम्हारे ही इंतज़ार में थी. मेरे पड़ोस में ही तुम्हे सुलाया गया था और तुम सोते हुए कितने अच्छे लग रहे थे. बिलकुल शांत. न कोइ दर्द , न पछतावा. न कुछ छूट जाने का दुःख न असमय यंहा आने की बेचैनी. कुछ भी नहीं था तुम्हारे चहरे पर. विषाद की एक रेखा तक नहीं.
सब तुम्हे सुलाकर चले गए थे. तुम्हारे अपने तुम्हे छोड़ गए थे बिना तुम्हारी अनुमति लिए. तुम सो रहे थे और मै तम्हारे आस पास घूम रही थी, ताकि तुम्हे अकेलापन न लगे.
औरफिर...... तुम उठ बैठे, जैसे लम्बी नींद से जागे हो, तुमने नदी पर जाकर पानी पिया और फिर अपनी उसी जगह पर लौट आये. मै तुम्हारे पास थी फिर भी तुमने मुझे नहीं बुलाया. दूसरे दिन जब  तुम कराह रहे थे, मुझसे रहा नहीं गया और मै जब तुम्हारे पास आयी, तुम लहू-लुहान थे. भीषण दर्द अपने अन्दर समेटे .जब मैंने तुम्हे आवाज दी तुम चौंक गए थे. मुझे तुम्हारे चौंकने पर हंसी आ गयी और तुम भी मुस्कुराने लगे. वही पल था जब हमारा रिश्ता फिर से बना. हमारी मुस्कानों का रिश्ता. पता नहीं हमारे इस रिश्ते का नाम क्या है? कुछ भी हो, कौन सा हमें दुनियावी लोगों की तरह हर रिश्ते का प्रमाणपत्र बना कर रखना है.
तुमने मेरे ज़ख्मों पर मरहम लगाया था और मैंने तुम्हारे घावों को प्यार से सहलाया था. ये ज़ख्म हम दुनिया से अपने साथ लाये थे. हमारे पास शरीर नहीं थे. लेकिन जब शरीर था तब समाज और जमीनी रिश्तों ने जो ज़ख्म दिए थे वो हम अब भी अपने साथ ढो रहे थे. कितने धोखे, कितनी मनमानियां, कितने लालच और कितनी अधूरी इच्छाएं तुम साथ लाये थे और मै;  टूटे हुए सपनों के महल, अपने स्त्री होने की प्रताड़ना, झूठे रिश्तों का बोझ और जीवन भर किये गए समझौतों को ढो रही थी, अब तक मुक्त नहीं हो पायी थी उनसे. हमारा तन ख़त्म हो गया पर हमारी आत्मा पर लगे दाग नहीं छूटे थे अब तक.

मेरे घर वालों ने मुझे तुम से दूर कर दिया और ब्याह दिया ऐसे इंसान से जो आदमी की शक्ल में भेड़िया था. मेरे तन और मन का एक भी टुकड़ा ऐसा नहीं था जहाँ उसने मुझे चोट न पंहुचाई हो. दुनिया की नज़र में मै बहुत खुश थी, गहनों से लदी हर समय मुस्कुराती हुई. मै एक बेबस रानी थी एक ऐसे साम्राज्य की जहाँ एक इंच जमीन भी मेरी नहीं थी.
जब मैंने तुमसे फिर से राब्ता करने की कोशिश की मुझे इसी नदी में डुबाकर मार दिया गया और कह दिया गया मैंने आत्महत्या कर ली. समाज को बताया गया कि मैं चरित्रहीन थी. शादी के बाद भी अपने प्रेमी के प्यार में पागल थी. मै जानती हूँ मुझे मारने के बाद उन्होंने तुम्हारा घर जला दिया, तुम्हारी बहन की पूरी समाज में बदनामी की और तुम्हे नौकरी से भी निकाल दिया गया. तुम कितने बेबस हो गए थे. मै यंहा भटक रही थी और तुम वंहा. लेकिन हमारा मिलन हमारे नसीब में था. वंहा नहीं तो यंहा! और.... एक दिन जब तुम जंगल में लकड़ी काटने गए थे, उन्होंने तुम्हे मार कर टांग दिया था बरगद शाख पर और गाँव में झूठी अफवाह फैला दी कि तुमने फांसी लगा ली.
वो जो नहीं होने देना चाहते थे अंततः वही किया. उन्होंने तुम्हे मार कर मेरे पास पंहुचा दिया. देखो अब हम साथ हैं. हमें किसी रिश्ते की जरूरत नहीं और हमें चरित्रहीन कहने वाला भी कोइ नहीं. यहाँ मेरा और तुम्हारा होना कितना सुखद है, जैसे तुम्हारे प्रथम स्पर्श का एहसास. चाहती हूँ हमारा प्रेम सदियों ऐसे ही बना रहे.......

(Image credit google)



टिप्पणियाँ

  1. उफ्फ.. कितना दर्द, कितनी सच्चाई.
    इतना जीवंत मानो सबकुछ मेरे सामने घट रहा हो.

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    1. आभार सुधा जी,त्वरित टिप्पणी बहुत मायने रखती है. सादर

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  2. दर्दनाक ...
    ऐसी घटनाएं समाज के मुंह पे तमाचा हैं ... आपकी कहानी सच के करीब है ...

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’एक पर एक ग्यारह - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    1. प्रिय अपर्णा -- आपकी कहानी अनेक बार पढ़ी और लौट गयी मैं |आज मन बनाया इस पर लिखने का | शायद संसार में अतृप्त जीकर दो निष्कलुष आत्माएं जीवन और तन के पार ही मिलती होंगी | मन को भावुक करने वाली ये कहानी कहीं से भी कहानी प्रतीत नहीं होती | मेरी रचना '' सुनो मनमीत'' की कुछ पक्तियां समर्पित हैं कहानी के दोनों अप्रितम पात्रों को --
      जब ना मिलती राह इस जग से -
      तो चुन के राह सितारों की ;
      मिलते जीवन के पार कहीं -
      वो मन के मीत लिखें हम - तुम ;
      प्रेम पगे मन से आ मिल -
      इक अमर गीत लिखें हम - तुम !
      हार के भी सदा जीती है-
      जग में प्रीत लिखें हम तुम !!!!!सस्नेह ---

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