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जुलाई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अँधेरे की चादर

रात और दिन में फर्क है कि... रात में पोते जा सकते हैं नंबरप्लेट, अंधेरे की चादर तले सुलाए जा सकते हैं बोलने वाले ज़िस्म, ट्रकों और ट्रेनों के चक्के मोड़े जा सकते हैं श्मसान की ओर, रात पर्दा है गुनाह पर रात पर्दा है सच पर.... रात में बंद होता है संसद और न्यायालय.... उठो कि रात में सो जाता है ज़मीर, इंसान जागने के पहले होता है मूर्छा में, रात में हाँथ को हाँथ दिखता नहीं, तो सच की क्या बिसात! अंधेरे में खून और पानी एक सा न रंग, न दर्द ,न तड़प कुचल दो सच को...

फितरत (लघु कथा)

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फितरत उसने ज़ोर से उस डाल को उखाड़ा और फेंक दिया हवा के साथ। मिट्टी के आंसू थे कि थमने का नाम नहीं ले रहे थे... डाल उड़ती रही ,उड़ती रही और अलग हो गई अपनी जड़ों से पर बीज तो वही थे उसके भीतर जो सौंपे थे मिट्टी ने उसे... डाल जंहा गिरी वंही जम गई, बांध ली उस जगह की मिट्टी को भी अपने साथ, फैला ली जड़ें और देने लगी ऑक्सीजन आस-पास के लोगों को... डाल का क्या उसे तो अपना धर्म निभाना था, जल, थल,वायु कुछ भी हो...  उखाड़ने वाला भूल गया था शायद कि पैदाइश था वो भी किसी डाल की जो किसी और जमीन से उखाड़ कर अलग कर दी गई थी...  उखाड़ने वाले ने अपना कर्म किया था और जमने वाले ने अपना... अपनी अपनी फितरत!

मर गई गइया, (लघुकथा)

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  गइया ने इस बार फ़िर बछिया जन्मी थी, क्या करती कोख का पता नहीं रहता कि नर है या मादा। बछड़े की आस में बैठा रघु मरता क्या न करता, गुस्सा तो बहुत था क्या करे! बछिया मारे तो पाप न मारे तो हर नज़र करेजा में आग फुंक जाए... चल आज तुझे ठिकाने लगाते हैं... शाम को ले गया टहलाने और कुएं में पानी दिखाने के बहाने बस एक धक्का... और गइया कुएं में... बछिया की भी गर्दन मरोड़ फेंक आया मंदिर के पिछवाड़े... अब कलेजे में पड़ी थी ठंढक उधर औरत की लाश तैर रही थी कुंए में और मंदिर के पिछवाड़े एक मरा बच्चा मिला था ... पुलिस छानबीन कर रही थी और रघु साधू के भेष में घूम रहा था वृन्दावन की गलियों में... गौशाला में डेरा डाले रघु गायों की सेवा से पाप धो रहा था और औरत को बेटी जन्माने की सज़ा मिली थी। Image credit to Shutterstock

माटी की देह (लघु कथा)

फुगिया कुछ महीनों से बिस्तर पर है .... , उसका मर्द  दो को ला चुका है , रात काटी है उनके साथ और ठिकाने लगा आया है किसी बड़े शहर में. जानती है सब कुछ फुगिया फिर भी चुप है.. पति नाम की तख्ती और जो टंगी है उसके सिर... भाग नहीं सकती अब.. कितने दिन और बचे हैं ज़िन्दगी के.. काम की नहीं रही अब। फूल बेचती थी फुगिया कभी.. और फूलों के संग-संग गांव की कलियों को भी लगा देती थी ठौर- ठिकाने... कोई भूखा न मरे गांव में.. और क्या बस इतना ही तो चाहती थी वो... बस नेकी कर और दरिया में डाल.. उसकी नेकी की खबर उस बार न जाने कैसे पुलिस को लग गई और बिना कोई देर हुए फुगिया जेल में थी... न किसी को खबर न पता! फुगिया गांव से गायब थी और खुद से भी.. मिर्ज़ा ने छुड़ाया था उसे और ले गया था कलकत्ता... दो तीन बार पहले भी मिली थी फुगिया उससे काम के सिलसिले में... बांग्लादेश, नेपाल से भी लाता था वो लड़कियों को और दिल्ली ले जाता था.. फुगिया भी मदद करती थी। दोनों ने शादी कर ली थी इस शर्त पर की कभी साथ में न सोएंगे.. आखिर मिर्ज़ा मुसलमान था और उसे कैसे मुंह लगा सकती है फुगिया... बड़े का मांस खाते हैं ये लोग बचपन से सुनती आई थी