कविता - एक सच जो कहा नहीं जा सकता


कहो तो एक बार
ये चाँद नोच कर फेंक दूं तुम्हारे क़दमों में ,
अपने हमसफ़र को सरे राह छोड़ दूं और थाम लूं तुम्हारा दामन ,
बच्चों को कर दूं दर दर भटकने के लिए मजबूर.
हाँ मै छोड़ सकता हूँ सारा सुकून .
मै हूँ एक दीवाना , तुम्हारे प्यार में पागल
रहता हूँ सराबोर तुम्हारे ही ख्यालों में ,
पत्नी के आगोश में भी तलाशता हूँ तुम्हारा जिस्म ,
अपने बच्चों की मुस्कान में तुम्हारी ही हंसी सुनाई पड़ती है मुझे,
मै थक गया हूँ खुद से झूठ बोलते- बोलते
और तुम हो कि दुनियादारी का वास्ता देती हो,
कर दो न मुझे आज़ाद इन मर्यादा की जंजीरों से.
हाँ, आज मै कुबूल कर लूँगा अपना सच अपनी पत्नी के सामने
भले ही वह फेक दे मुझे अपने घर के बाहर,
ज़लील करे मुझे सरे आम,
मै तैयार हूँ
और तुम ?
झूठ के लिबास में कब तक छलोगी अपने आप को ........?   


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