आत्मबोध

 

मेरे भीतर एक जादूगर रहता है
न मुझसे जुदा , न मुझसा
मुझे दूर से देखता हुआ दिखाता है मुझे आत्ममोह,
या ख़ुदा! कितना अलग है मुझसे मेरा मै
आत्मध्वजा के भार से झुका हुआ मै
झुक ही नहीं पाता माफ़ी के दो लफ्ज़ो में,
शुक्रिया के शब्दों का झूठ
मेरी ही आत्मा पर जमा रहा कालिख है...
न न .. अब और नहीं
और नहीं लादूँगा खुद पर 'कुछ होने' का बोझ
नहीं तो ..!
मेरा जादूगर बदल देगा मुझे उस सुनहरी छड़ी में
जिसकी छुअन से सच झूठ में बदल जाता है...

#अपर्णा

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आहिस्ता -आहिस्ता

मृत्यु के बाद एक पल

हम सफेदपोश!