आत्मबोध
मेरे भीतर एक जादूगर रहता है
न मुझसे जुदा , न मुझसा
मुझे दूर से देखता हुआ दिखाता है मुझे आत्ममोह,
या ख़ुदा! कितना अलग है मुझसे मेरा मै
आत्मध्वजा के भार से झुका हुआ मै
झुक ही नहीं पाता माफ़ी के दो लफ्ज़ो में,
शुक्रिया के शब्दों का झूठ
मेरी ही आत्मा पर जमा रहा कालिख है...
न न .. अब और नहीं
और नहीं लादूँगा खुद पर 'कुछ होने' का बोझ
नहीं तो ..!
मेरा जादूगर बदल देगा मुझे उस सुनहरी छड़ी में
जिसकी छुअन से सच झूठ में बदल जाता है...
#अपर्णा
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 16 दिसम्बर 2021 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
मंच पर रचना को स्थान देने के लिए सादर आभार दी
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जवाब देंहटाएंशुक्रिया आलोक जी
good poem
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