सोलह श्रंगार

नख से सिख तक
सोलह श्रंगार से सजी
तुम्हारी अर्धान्गिनी;
तुमने पलट कर भी नहीं देखा!
तुम्हे पता भी है
इन श्रंगारों की कीमत,
नाक , कान, हाथ, पैर
शरीर का एक- एक अंग
रखना पड़ता है गिरवी
दूसरे के नाम,
हर कदम ,हर हरकत
जैसे नुमाइश करता है दोनो का रिश्ता.
औरत का वज़ूद पैबंद लगे पर्दे सा
डोलता है दरवाजे के दरम्यान
और दुनिया उसे सतीसावित्रीके मापदन्डो
पर तौलती है.
अपना मान- सम्मान
अस्मिता, अस्तित्व
सब कुछ  उसके नाम करने के बावजूद
कंहा बन पाती है सच्चे मायने में अर्धान्गिनी;
कि धर्म , अर्थ और सम्मान में
पुरुष हमेशा ही गिना जाता है उससे ऊपर,
दर्द , तकलीफ़ और ज़ज़्ब में
औरत पुरुष से आगे खडी होती है.
तन के पोर-पोर को सोलह श्रंगारों में
बांध कर भी
कभी कभी बांध नहीं पाती पति का दिल
और वह;
पतीक्षारत रहती है जीवन भर
सच्ची अर्धान्गिनी सा सम्मान पाने कि लिये.


टिप्पणियाँ

  1. This is the precise weblog for anybody who needs to seek out out about this topic. You notice so much its almost arduous to argue with you. You positively put a brand new spin on a subject that's been written about for years. Nice stuff, simply nice!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही उम्दा लिखा आपने अपर्णा जी।नारी के मन और वजूद का सही आकलन और व्यथा एक नारी बखूबी कर सकती है। रचना बहुत पसंद आयी आपकी।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मृत्यु के बाद एक पल

आहिस्ता -आहिस्ता

प्रेम के सफर पर