मै खड़ा हूँ

चाहता हूँ तुम्हे लिपिबद्ध कर लूं
न जाने कब छिटक कर दूर हो जाओ
किसी भूले-भटके विचार की मानिन्द,
मै खोजता ही रहूँ तुम्हे
चेतना की असीमित परतों में....
तुम्हारी लंबित मुलाकातों में
तुमसे ज्यादा;
तुम्हारी अल्लहड़ हंसी होती है,
वो बेसाख्ता मुस्कुराती हुयी पलकें
जैसे थाम लेती हैं मन की उड़ान.
तुम्हारी उँगलियों में कसमसाती है धूप;
और तुम बाहें फैलाए उड़ा देती हो उसे 
इन्द्रधनुषीय रंगों में,
चाहता हूँ सहेज लूं तुम्हारी वो आग
जो बोलते ही राख में भी जान डाल देती है,
कौंधती है बिजली की तरह,
मेघ बन बरस जाती है बंजर धरती पर.
तुम्हारा होना आज भी है
फुलके की वाष्प सा नर्म-गर्म ......
कि दौड़ जाता हूँ बार-बार उसी मोड़ पर;जंहा
तुमने कहा था....
रुको, अभी आती हूँ और छिटक गयी थी हाँथ से दूर.
जब भी लौटोगी पाओगी वंही,
मील के पत्थर सा अब भी गड़ा हूँ
तुम्हारी लंबित मुलाक़ात के लिए
अब भी खड़ा हूँ. 

 
 

  

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर रचना अपर्णा जी।तरह तरह के भाव का मिश्रण बढ़िया लग रहा।

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    1. बहुत आभार श्वेता जी. आपकी प्रतिक्रिया उत्साह दोगुना कर देती है.

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  2. प्रेम का गुरुत्व है कविता में।
    बहुत खूब संजोया है शब्दों को।

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  3. वाह !
    अति सुन्दर !
    प्रेम में ऐसा समर्पण उसे अलौकिक बनाता है।
    चित्र की कलात्मकता के साथ गंभीर भावाभियक्ति।
    शीर्षक भले ही "खड़ा हूँ" है लेकिन चित्र में बैठे होने जैसा भ्रम उत्पन्न किया गया है।
    बधाई एवं शुभकामनाऐं।

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  4. रवीन्द्र जी आपकी पारखी नज़र कमाल की है. इतनी शानदार प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिये हार्दिक आभार.

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  5. ब्लोग पर आने और उत्साहवर्धन के लिये शुक्रिया लोकेश जी.

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