"ग्राहक" लघुकथा
रांची से जमशेदपुर आने में यही कोई दो- ढाई घंटे लगते थे हमेशा। सोचा
था १०- ११ बजे रात तक घर पंहुच जाऊंगा। उस दिन जैसे ही चांडिल पार किया ट्रकों की लम्बी लाइन लगी थी
रोड पर। लोगों से पूछा तो पता चला आगे २ किलोमीटर तक ऐसे ही जाम है। किसी भी सूरत में आगे जाना
नामुमकिन है। मन में बड़ी कोफ़्त हो रही थी। घर पंहुच कर भी नहीं पंहुचा था। घर पर फोन कर
के सूचना दी कि चांडिल में फंसा हूँ। जाम कम होते ही निकलने की कोशिश करूंगा। घर
पर खाने के लिए मेरा इन्तजार न करें।
बहुत भूख लग रही थी। गाड़ी
में बैठे- बैठे ही इधर - उधर नज़र दौड़ाई कंही कोई रेस्टोरेंट या कोई ढाबा ही नज़र आये. जंहा कुछ खाने
के लिए मिल जाता। दूर एक ढाबा सा दिखाई दिया। अब गाड़ी छोड़कर कैसे जाऊं। सोचा कोई
दिख जाता तो उसी से कुछ मांगा लेता। गाड़ी से बाहर निकल इधर - उधर देख रहा था। तभी
६-७ साल का एक लड़का मेरे पास आया. पतला - दुबला, थोड़ा सांवला सा। कान तक बढे हुए बाल। आंखों में
अजीब सी निरीहता। मेरे पास आकर बोला, "साहब आपके पास पैसे हैं"? मैंने कहा हाँ , क्योँ? उसके चहरे पर खुशी तैर गयी.
"साहब मुझे बहुत भूख लगी है. वो ढाबा वाला
मुझे खाने के लिए कुछ नहीं
दे रहा. माँ के पास सारे पैसे ख़त्म हो गए हैं. मेरी मां ने दो दिन से खाना नहीं बनाया।
बोलती है जाओ होटल पर कुछ काम करो, बदले में वो खाना खिला देगा।
कल ढाबा वाले ने मुझे खाना
दिया भी था लेकिन आज दोपहर में मैंने चुपके से एक पकौड़ी खा ली थी, तो उसने मुझे बहुत मारा और
अब खाना भी नहीं दे रहा, जबकि मै सुबह से होटल में काम कर रहा हूँ".वो सब कुछ एक सांस
में बोल गया. फिर थोड़ा रूककर मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और मेरा हाँथ पकड़ कर बोला," साहब ग्राहक बनोगे। माँ
कहती है ग्राहक आएगा, हमें पैसा देगा तभी घर में खाना बनेगा". साहब मेरी माँ के
ग्राहक बन जाओ न! फिर हम दोनों को खाना मिल जाएगा। ग्राहक आता है , माँ के साथ झोपड़ी में जाता है , फिर मां को पैसा देता है। माँ उन पैसों से सामान लाती
है , खाना बनाती है और हम दोनों एक साथ बैठकर खाते हैं। साहब , ग्राहक बन जाओ न. वो मेरा
हाँथ पकड़ कर जैसे जिद करने लगा. उसकी बातें सुनकर मुझे लकवा मार गया था. इतना छोटा
बच्चा अपनी माँ के लिए ग्राहक खोज रहा था................
मैंने अपना पर्स निकाला, हाँथ में जो भी रुपये आये
उस बच्चे के हाँथ पर रख दिए और बोला जाओ माँ को दे देना. कहना ग्राहक आया था. आज
घर के बाहर से ही चला गया। मैं भागकर अपनी गाड़ी के अंदर बैठ गया. पेट की भूख न
जाने कहां गायब हो गयी थी।
(Image credit google)
बहुत ही भयावह सच को कहानी में पिरो दिया आपने अपर्णा जी।गज़ब।निःशब्द है हम। संवेदनाओं को झकझोरती रचना आपकी।
जवाब देंहटाएंमार्मिक...
जवाब देंहटाएंजिंदगी वो सब करवा देती है
जो हम करना ही नहीं चाहते
पर
मज़बूर को ,
मज़बूर की ,
मजबूरिया..
मज़बूर
कर देती है ..!!!!
आदर सहित
मार्मिक कथा, शब्द कम पड़ रहें हैं भावनाओं को व्यक्त करने में।
जवाब देंहटाएंअनकही अनछुई चुभती बातों को, सामाजिक सड़ांध को आपकी कलम आवाज़ देती है तो लगता है हमने अब सहना बन्द कर दिया है। आप अलग लिखते हैं, सटीक लिखते हैं, प्रासंगिक लिखते हैं। बहुत सुंदर कहानी। सादर
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