खान मजदूरों का शोकगीत
भारत में झरिया को कोयले की सबसे बड़ी खान के रूप में जाना जाता है जो की ईंधन का एक बड़ा श्रोत है। ये देश में ऊर्जा के क्षेत्र से होने वाले आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परन्तु वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार इस खान में लगभग ७० से अधिक् स्थानों पर आग लगी है जो १०० वर्गमील से भी अधिक क्षेत्र को कवर करती है। ये आग कभी - कभी धरती का सीना फाड़ कर बाहर निकल आती है और मासूम ज़िंदगियाँ मिनटों में मौत के हवाले हो जाती हैं। सरकार , प्रशाशन और उस क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियां उस पूरे क्षेत्र में रहने वाले लोगों को वंहा से विस्थापित कर उनके पुनर्वास की योजनाओं पर काम कर रही है। कुछ लोग जा चुके हैं कुछ नहीं जाना चाहते।
खान मजदूर आग के बीच काम करते है , जलते हैं , मरते हैं। सुरक्षा साधनों के बावजूद वे हर क्षण मौत से दो -दो हाँथ करते है।
खान मजदूरों के साथ बातचीत के बाद लिखी गयी एक कविता .........
खान मजदूर आग के बीच काम करते है , जलते हैं , मरते हैं। सुरक्षा साधनों के बावजूद वे हर क्षण मौत से दो -दो हाँथ करते है।
खान मजदूरों के साथ बातचीत के बाद लिखी गयी एक कविता .........
कोयला खदानों में काम करते मजदूर,
गाते हैं शोकगीत,
कि टपक पड़ती है उनके माथे से
प्रतिकूल परिस्थितियों की पीड़ा,
उनके फेफड़ों में भरी कार्बन डाई आक्साइड
सड़ा देती है उनका स्वास्थ।
धरती के ऊपर भी, नीम अंधेरा
तारी रहता है उनके मष्तिष्क पर.
अँधेरे के बादल बरसते है,
सुख का सूरज उन्हें दिखाई नहीं देता।
जब -जब लेते हैं हम खुली हवा में सांस
उनके शरीर का एक एक अंग;
तरस खाता है हमारी आत्म केंद्रीयता पर.
धरती की परतों में जमा कोयला
उघाड़ देता है हमारा दोहरा चरित्र।
जब -जब दहक कर फट जाता है धरती का सीना
जमींदोज़ हो जाती हैं ज़िंदगियाँ।
हमें क्या !
हम व्यस्त हैं चाँद के तसव्वुर में,
खोये हैं प्रिय के आलिंगन में,
अपने सपनों को सजा रहे है
रंगों, फूलों और तितलियों से,
बच्चे, बूढ़े,जवान आग की हवस का
शिकार हो रहे हैं.
कोयला खानों की आग
लीलती जा रही है गरीबों की दुनिया।
सुना है पुनर्वास की योजना पर काम चल रहा है..........
क्या अपनी जड़ों से उखड़ने के बाद
बस पाया है कोई दुबारा किसी और जगह?
(चित्र साभार गूगल )
बहुत बेहतरीन कविता! मैंने बहुत नजदीक से इस त्रासदी को देखा है और अभी भी जब धनबाद से हजारीबाग होकर रांची जाएँ तो रास्ते में ऐसे जगह मिलते हैं जहां अग्नि की अनवरत अहर्निशं लपटों के दर्शन होते हैं. मजदूरों की जिंदगियों के साथ कुछ शहरों और कस्बों के वजूद और उनकी सभ्यताएं भी इन आग की लपटों से झुलसने का इंतजार कर रहीं हैं. अच्छे मुद्दे पर अच्छी कविता की बधाई!!!
जवाब देंहटाएंसादर आभार अग्रज
जवाब देंहटाएंआपका संवेदनशील ह्रदय पीड़ित वर्ग के लिए द्रवित होकर उनकी आवाज़ को शब्द देता है। शब्द कभी ख़त्म नहीं होता बल्कि ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत का अनुशरण करता हुआ रूप परिवर्तित करता है और यथास्थान गूंजता रहता है। एक दिन यही गूँज फ़ैसले का आधार बनती है। भौतिकता की चकाचौंध में हमें समाज के ग़रीब तबके की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। वर्षों से उस क्षेत्र में आग लगी हुई है अफ़सोस कि अब तक कोई मान्य हल सामने नहीं आ पाया। लिखते रहिये। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंरवीन्द्र जी, शायद कोई रास्ता मिल जाये उस दर्द से उबरने का जो आज आज भी हाशिये पर खडा है. इसी उम्मीद से लिखती हूं कि जन पैरवी मे कुछ शब्द शायद हथियार बन पायें.
जवाब देंहटाएंसादर आभार