खलल (तीन कवितायेँ)
१.
ज़िंदगी से जूझ कर
मौत से युद्ध कर
ऐ दुनिया!
इंसान को इंसान से मिला,
खलल पैदा कर
इस अनवरत चक्र में,
वक्त के पाटों में पिसती इंसानियत
तड़पती है,
रोती है ज़ार-ज़ार,
देखती हूँ आजकल.......
आदमी से आदमी गायब है.
२.
देहरी के भीतर कदम रख
खलल पैदा किया एक स्त्री ने;
एक स्त्री के साम्राज्य में,
वक्त की सुई घूमती है,
रिश्तों के बंध बनते हैं,
टूटते हैं कुछ पुराने रिवाज़,
बदल जाती है
एक स्त्री की कुर्सी..... कि
समय नए का स्वागत कर रहा है.
3.
आवारागर्दी करती हवा
बार बार खलल डालती है
तरतीब से बंधे गेसुओं में,
आवारा बादल ले आते है बरसात
खलल पैदा करते हैं
धूप और धारती के मिलन में,
जब जब खलल पड़ता है
पाताल की चट्टानों की सेज में
कांपती है धरा
जमींदोज हो जाती हैं
बसी बसाई जिंदगियां,
बहुत कठिन होता वक्त को थामना,
आखिर शब्द भी
खलल डाल ही देते हैं
रिश्तों में,
गर समझ कर न बुना जाय
बातों का ताना- बाना.
शुभ प्रभात सखी
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना का प्रसव
एक अख़लल शुभकामना प्रेषित है
सादर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १९ फरवरी २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत ही सुन्दर...वाह!!!
जवाब देंहटाएंवाह!!लाजवाब।
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