पगडंडियाँ उदास हैं!

कंटीली झाड़ियाँ उग आयी हैं 
रिश्तों पर,
मौन है हवा... 
घूंघट वाली ठिठोलियाँ गायब हैं
बंसी की उदास धुन 
और प्रेम की आवारगी;
खो गयी हैं शहरी बाजारों में, 
पायलों की रुनझुन ने  
बदल लिया रास्ता,
हाँथ से हाँथ का स्पर्श
बिछड़ गया .......
मंदिर की घंटियां सुन 
देहरी पर दिए नहीं जलते,
पगडंडियाँ उदास हैं!
कि.... उन पर लौटने वालों के 
पदचिन्ह नहीं दिखते.

(Image credit google)
 

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01.03.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2896 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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    1. मेरी रचना को स्थान देने के लिए सादर आभार दिलबाग जी।

      हटाएं
  2. उत्तर
    1. शुक्रिया आदरणीय पम्मी दी,
      आपकी प्रतिक्रिया मन को उत्साह से भर देती है।
      सादर

      हटाएं
  3. आदरणीय रवींद्र जी, कविता को हलचल मंच पर स्थान देने के लिए बहुत आभार।
    सादर

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही उदास मन से लिखी इस रचना के प्रश्न अनुत्तरित हैं प्रिय अपर्णा | कुछ सालों में मानो समय को पंख लग गये सभी कुछ मधुर उड़ गया इस प्रगति की आंधी में |बहुत याद आतें हैं वो पुराने दिन |

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  6. बहुत सुंदर रचना
    बहुत ही प्रभावशाली

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  7. बहुत खूबसूरत उदासी का चित्रण किया है। जब हम उदास होते हैं तो सबसे अहम हमारे रिश्ते होते हैं ऐसे में अगर कंटीली झाड़ियाँ उग आएं तो बहुत मुश्किल होता है खुद को सम्हालना।
    बेहद भावपरक लेखन।

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  8. जाने वाले लौटते हैं ... मिशन धुँधले हो जाते हैं पर मिटते नहि ... गहरी भावपूर्ण रचना ...

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  9. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ५ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  10. वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर...भावपूर्ण रचना ।

    जवाब देंहटाएं

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