पगडंडियाँ उदास हैं!
कंटीली झाड़ियाँ उग आयी हैं
रिश्तों पर,
मौन है हवा...
घूंघट वाली ठिठोलियाँ गायब हैं
बंसी की उदास धुन
और प्रेम की आवारगी;
खो गयी हैं शहरी बाजारों में,
पायलों की रुनझुन ने
बदल लिया रास्ता,
हाँथ से हाँथ का स्पर्श
बिछड़ गया .......
मंदिर की घंटियां सुन
देहरी पर दिए नहीं जलते,
पगडंडियाँ उदास हैं!
कि.... उन पर लौटने वालों के
पदचिन्ह नहीं दिखते.
(Image credit google)
वाह 👏 बेहद खूबसूरत रचना.
जवाब देंहटाएंआभार सुधा जी।
हटाएंसादर
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01.03.2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2896 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
मेरी रचना को स्थान देने के लिए सादर आभार दिलबाग जी।
हटाएंबहुत सुंदर रचना.।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आदरणीय पम्मी दी,
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया मन को उत्साह से भर देती है।
सादर
आदरणीय रवींद्र जी, कविता को हलचल मंच पर स्थान देने के लिए बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंसादर
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जवाब देंहटाएंबहुत ही उदास मन से लिखी इस रचना के प्रश्न अनुत्तरित हैं प्रिय अपर्णा | कुछ सालों में मानो समय को पंख लग गये सभी कुछ मधुर उड़ गया इस प्रगति की आंधी में |बहुत याद आतें हैं वो पुराने दिन |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्रभावशाली
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत उदासी का चित्रण किया है। जब हम उदास होते हैं तो सबसे अहम हमारे रिश्ते होते हैं ऐसे में अगर कंटीली झाड़ियाँ उग आएं तो बहुत मुश्किल होता है खुद को सम्हालना।
जवाब देंहटाएंबेहद भावपरक लेखन।
जाने वाले लौटते हैं ... मिशन धुँधले हो जाते हैं पर मिटते नहि ... गहरी भावपूर्ण रचना ...
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ५ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर...भावपूर्ण रचना ।