विदा का नृत्य




मैं तुममें उतना ही देखता हूँ,
जितना बची हो तुम मुझमें,
किंवाड़ से लगकर भीतर झांकती तुम्हारी आँखें,
निकाल ले जाती हैं मुझे
पूरा का पूरा,
जीवन भर,
पुआल के ढेर पर सोता मैं,
सुस्ताता हूँ थोड़ी देर,
डनलप के गद्दों पर,
नींद आजकल सो रही है 
खेत के मेढ़ सी,
न इधर न उधर,
तराशता हूँ जब भी तुम्हारा बुत,
ख़्वाब में भी फूट जाते हैं,
तुम्हारी देह पर पड़े फ़फोले,
अपनी बुतपरस्ती देख,
रेशा-रेशा दहकता हूँ मैं,
भागता हूँ ख़ुद से दूर,
खो जाता हूँ किसी लोक धुन में,
नाचता हूँ सुखाड़ के गीतों पर भी,
अपने पैरों के जख़्मी होने तक,
अनंत यात्रा पर निकलता हूँ,
छोड़ जाता हूँ ये खलिहान,
कि...फसलें उगाने के दिन बीत गए हैं।
(Image credit google)

टिप्पणियाँ

  1. आप अपने सिराहने पर
    दर्शनशास्त्र की किताब
    रखकर सो गई थी
    इसे पढ़कर ऐसा ही लग रहा है
    मर्म भी है इसमे
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. वाहह!सुंदर एहसास और शब्दावली👌

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. मैं तुममें उतना ही देखता हूँ,
    जितना बची हो तुम मुझमें,
    वाह! बहुत सार्थक!

    जवाब देंहटाएं
  5. ऐसा कमाल का लिखा है आपने कि पढ़ते समय एक बार भी ले बाधित नहीं हुआ और भाव तो सीधे मन तक पहुंचे !!

    जवाब देंहटाएं

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