इंतज़ार एक किताब का!


उसने मुझे बड़ी हसरत से उठाया था,
सहलाया था मेरा अक्स,
स्नेह से देखा था ऊपर से नीचे तक, 
आगे से पीछे तक,
होंठों के पास ले जाकर
हौले से चूम लिया था मुझे 
और.... बेसाख्ता नज़रें घुमाई थीं चारों ओर
कि...... किसी ने देखा तो नहीं!
 मैं ख़ुश थी उन नर्म हथेलियों के बीच 
कितनी उम्मीद से घर आयी थी उसके 
कि.... अब रोज 
उन शबनमी आंखों का दीदार होगा, 
 उन नाज़ुक उँगलियों से छुआ जाएगा
मेरा रोम-रोम
पर......
मैं बंद हूँ इन मुर्दा अलमारियों के बीच 
मेरी खुशबू मर गयी है,
ख़त्म हो रहे हैं मेरे चेहरे के रंग....
लाने वाली व्यस्त है घर की जिम्मेदारियों में....
बस 
एक तड़प बाक़ी है,
उसकी आँखों में मुझे छूने की, 
वो काम की कैद में है 
और मैं अलमारी की ....
वो मुझे चाहती है, 
और मैं उसे, 
इन्तजार है, 
उसे भी, 
मुझे भी,
एक दूसरे के साथ का!

(Image credit google)





टिप्पणियाँ

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ७ मई २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह!!,बहुत ही खूबसूरत भाव ।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह बहुत सुंदर रचना शुभकामनाएं अपर्णा जी..

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/05/68.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. राकेश जी मेरी रचना को मित्र मंडली में स्थान देने के लिए सादर आभार

      हटाएं
  5. बहुत सी बार ऐसा होता है कि किताबे खरीद तो ली जाती है लेकिन पढ़ी नही जाती.
    सुंदर चित्रण है इस घटना का.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रोहितास जी,प्रतिक्रिया देने के लिए आपका हृदयतल से आभार

      हटाएं

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