दहलीज़ पर कालिदास
कहो कालिदास,
आज दिन भर क्या किया,
धूप में खड़े खड़े पीले तो नहीं पड़े,
गंगा यमुना बहती रही स्वेद की
और तुम.... उफ़ भी नहीं करते ,
कहो कालिदास,
कैसा लगा मालविका की नज़रों से विलग होकर,
तुम लौट-लौट कर आते रहे उसी दहलीज़ पर
मन में कौंधती रही दाड़िम दंतपंक्ति
मुस्कुराहटें संभालते रहे प्रेम की पोटली में
लौट नहीं पाते उसी द्वार
खुद से वादा..... प्रेम से ज्यादा जरूरी है?
कहो कालिदास,
विद्वता की गरिमा ओढ़
थके तो नहीं,
इससे तो अच्छा था कि
बैठे रहते उसी डाल पर
जिसे काट रहे थे,
गिरते तो गिरते, मरते तो मरते,
जो होना था हो जाता
महानता का बोझ तो न ढोना पड़ता,
अरे कालिदास!
महानता की दहलीज़ के बाहर आओ,
ज़रा मुस्कुराओ,
कुछ बेवकूफियां करो
कुछ नादानियाँ करो,
बौद्धिकता का खोल उतारो
हंसो खुल के
जियो खुल के,
अरे कालिदास!
एक बार तो जी लो अपनी ज़िंदगी।
(हर पुरुष के भीतर बैठे कालिदास को समर्पित)
(Image credit Shutterstock)
जय हो,
जवाब देंहटाएंआधुनिक कालिदासों की...
अच्छा व्यंग्य...
सादर..
बहुत बहुत आभार भाई साहब
हटाएंसादर
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सपने हैं ... सपनो का क्या - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शिवम जी,ब्लॉग बुलेटिन में रचना को शामिल करने के लिए।
हटाएंसादर
वाह ।.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया गिरिजा जी
हटाएंसादर
वाह!!बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंशुभा दी , हार्दिक आभार।
हटाएंसादर
आज के कालिदास बस यूं ही मुस्कराते रह जाते हैं।
जवाब देंहटाएंवाह ! प्रिय अपर्णा -- एक और विद्वतापूर्ण लेखन आपके नाम हो गया | सचमुच कोरे बोद्धिक वाद से उपजी नीरसता से इतर भी जीवन का महत्व है | उसे कालिदास के बहाने से खूब लिखा आपने | बहुर सुंदर उद्बोधन | !!!!!!! कालिदास भी मुस्कुराहट से भर गये होगें सुनकार | हार्दिक प्यार मेरा इस सुंदर रचना के लिए |
जवाब देंहटाएंप्रिय रेनू दी, आप की प्रतिक्रिया मन को आह्लादित कर देती है। स्नेह जैसे दिल में सीधे उतर जाता है। मन की गहराइयों से आपको आभार प्रकट करती हूँ। बस आप का नेह हम यूं ही बरसता रहे यही ईश्वर से प्रार्थना है।
हटाएंसादर
अर्थपूर्ण लेखन ।पुरूष अपने दंभ को छोड़ स्वाभाविकता की सरसता का आनंद उठाने लगे तो उसका जीवन सरल हो जाएगा ।सुंदर व्यंग्यात्मक रचना अपर्णा जी,शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंसादर ।
बहुत खूब
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