भीड़ का ज़मीर
मैं इस बार मिलूँगी
भीड़ में निर्वस्त्र,
नींद जब भाग खड़ी होगी दूर
आँख बंद होने पर दिखेगी सिर्फ भीड़,
बाहें पसारते ही सिमट जायेगा तुम्हारा पौरुष,
तब, झांकना अपने भीतर
एक लौ जलती मिलेगी
वंही;
जंहा, जमा कर रखा है तुमने मुझे,
बरसों बरस.....
सूखी रेत पर झुलसते पैरों तले,
जब बुझा दिए गए थे सम्मान के दीप्त दिए,
जब सड़क पर भाग रही थी अकेली स्त्री,
हजारों दानवों के बीच,
मैं मर गयी थी तुम्हारे भीतर;
एक लाश अटकी है तुम्हारी पुतलियों पर
उठाओ!!!
क्या तुम्हारे ज़मीर से ज्यादा भारी है,
सड़ी हुयी लाशें भारी हो जाती हैं,
और सड़ा हुआ जमीर....
भीड़ का कोई जमीर नहीं होता ।।
#Aparna Bajpai
जनतंत्र पर हावी होती बेक़ाबू,बेखौफ़ उन्मादी भीड़ के पीछे सत्ता का बरदहस्त मौजूद है. न्यायतंत्र की विवशताओं ने जनता को भीड़ के रूप में सड़क पर न्याय करने के लिये उकसाया है.
जवाब देंहटाएंस्त्री जीवन को हद दर्ज़े तक अपमानित करने वाली पुरुषों की बेअक़्ल भीड़ एक बड़ा प्रश्न खड़ा करती है कि हम सभ्य समाज से जंगली जीवन की ओर बढ चले हैं क्या?
आपकी लेखनी को नमन जो बेखौफ़ होकर पीड़ित का पक्ष सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करके हमारी संवेदना को झिंझोड़ती है....
बहोत दर्दनाक और झिन्झोड कर रख देनेवाली उद्विग्नता , भिडतन्त्र ... . .
जवाब देंहटाएंअंत:करण को झकझोर देने वाली रचना ।
जवाब देंहटाएंसड़ी हुयी लाशें भारी हो जाती हैं,
जवाब देंहटाएंऔर सड़ा हुआ जमीर
अंदर तक हिला दिया हैं इस कलाम ने।बहुत ही गहरे ज़ज़्बात और इंकलाब की नुमाइश हैं ये।
बहुत बहुत बधाई।
प्रिय अपर्णा सच कहूं तो मुझे शब्द नहीं मिलते जब में इस तरह की बेमिसाल रचना पढ़ती हूं ।एक पीड़िता जब हद से ज्यादा सताई जाती है तो उसके अंदर की औरत हर दुनियावी। औपचारिक स्त्री सुलभ लोक लाज से कहीं दूर चली जाती है ।और भीड़ से ये उन्मुक्त संवाद क्यों ना हो ?भीड़ ने अनेक कुकृत्य देखकर अनदेखे किए हैं और अनेक अपने हाथों से किए भी हैं ।तभी तो कहा जाता है नहीं का कोई चेहरा नहीं होता और ना ही ज़मीर ।मरे ज़मीर वाली भीड़ से कैसी झिझक !!!!!!बेहद प्रभावशाली सृजन ।जिसके लिए बधाई और मेरा प्यार ।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को रक्षाबंधन के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आओ रक्षा करें इस "बंद - धन" की “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
भीड़ का जमीर बहुत दूर बैठा सब देख रहा होता है। सटीक।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंराजनीति जब निरंकुश हो जाती है ... अपराधी तत्व निज फ़ायदे के लिए बाहर आते हैं ...
जवाब देंहटाएंसमाज से ऐसे तत्वों को खोज खोज के निकलना होगा ...
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 29 अगस्त 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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मन के भावों को झकझोरती बेहद उत्कृष्ट रचना, भीड़ का कोई ज़मीर नहीं होता सच कहा भीड़ एक तूफान होती है जिसके चपेट में आया कुछ भी साबुत नहीं बचता।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लेखन प्रिय अपर्णा।
वाह!!सखी अर्पणा जी ,नमन करती हूँ आपकी लेखनी को ।सच कहा आपने ,भीड का कोई ज़मीर नहीं होता ...।
जवाब देंहटाएंअंतर्मन को झकझोरने वाली रचना
जवाब देंहटाएंसटीक कहा
जवाब देंहटाएंउम्दा अभिव्यक्ति
सच भीड़ का कोई जमीर नहीं होता।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति, हमेशा की तरह बेबाक।