खरीद -फ़रोख़्त (#Human trafficking)


बिकना मुश्किल नहीं
न ही बेचना,
मुश्किल है गायब हो जाना,
लुभावने वादों और पैसों की खनक
खींच लेती है
इंसान को बाज़ार में,
गांवो से गायब हो रही हैं बेटियां,
बेचे जा रहे हैं बच्चे,
आंखों से लुढ़कने वाले आँसू
रेत का दामन थाम
बस गए हैं आंखों में,
लौट आने की उम्मीद में,
गायब हो रही हैं पगडंडियां,
उदास हैं अम्मी और अब्बू!
न पैसे न औलाद,
कोई नहीं लौटता,
निगल लेती है मजबूरी,
गुम हो रही है पानी से तरंग
ख़ाली गांव, ख़ाली घर
सन्नाटे के सफ़र पर
चल निकला है आदमी.... कि
बाज़ार  निगल गया है रिश्तों की गर्माहट।

#AparnaBajpai

टिप्पणियाँ

  1. बाज़ार निगल गया है रिश्तों की गर्माहट।

    बिलकुल सटीक. यथार्थ वादी रचना. 👏 👏 👏

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    1. सुधा सिंह जी आप ने बिलकुल सही कहा---बाज़ार निगल गया है रिश्तों की गर्माहट--
      दुःख है की इसके बावजूद हम चेतने का नाम ही नहीं ले रहे----रेक्टर कथूरिया

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  2. बिलकुल सटीक. यथार्थ वादी, बहुत अच्छी रचना

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  3. समाज की विकराल विकृति को रेखांकित करती विचारोत्तेजक रचना। समाज को आईना दिखाना ज़रूरी है। बधाई एवं शुभकामनाऐं।

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  4. आज के युग में ज़िन्दगी इन्हीं मजबूरियों में घिर कर रह गयी है--सभी परम्परायों और मर्यादायों को इन्हीं मजबूरियों ने निगल लिया है----पूँजीवाद ने दी है पैसे की गुलामी और इस गुलामी ने हमसे हमारे जीवन काल में ही ज़िन्दगी छीन ली है---आपकी रचना सोचने को मजबूर करती है---दिल और दिमाग को झंक्झौरती है----इस अच्छी रचना की उपलब्धि के लिए बधाई और इसे शेयर करने के लिए धन्यवाद--रेक्टर कथूरिया

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार 30 नवंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  6. बाज़ार निगल गया है रिश्तों की गर्माहट!!!!!!!!
    प्रिय अपर्णा -- बहुत ही मर्मान्तक सत्य उजागर किया आपने समाज का | गाँव गली के मोह को तोड़कर जरूरतों की पूर्ति हेतु शहर की और बढ़े कदम कभी वापस गाँव की पगडंडीयों पर नहीं आते | गाँव के गीत गाते हैं -- वहां लौटने के सपने सजाते हैं -- पर लौट कभी नहीं आते | एक सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई और मेरा प्यार |

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  7. Aapni sarir aur unki man jab tak sahi nehi hotey tab tak yeh mela chalta rahega tab bhi hum maun ab bhi

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  8. वाह!!अपर्णा जी ,बहुत ही सुंदर और सटीक!

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  9. सही कहा है ...
    बाजारवाद का दावानल सब कुछ निगल रहा है ... रिश्ते ख़त्म हो रहे हैं ...
    चिंतन करती सुन्दर रचना है ...

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  10. नमस्ते,

    आपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
    ( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
    गुरुवार 7 मार्च 2019 को प्रकाशनार्थ 1329 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।

    प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
    चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
    सधन्यवाद।

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  11. बाजार निगल गया रिश्तों की गर्माहट.... बहुत ही सटीक और यथार्थवादी रचना ....शहरों में आकर पैसे कमाने का लोभ में सचमुच गाँँव खाली होते जा रहे हैं बहुत ही विचारोत्तेजक रचना...

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  12. ख़ाली गांव, ख़ाली घर
    सन्नाटे के सफ़र पर
    चल निकला है आदमी.... कि
    बाज़ार निगल गया है रिश्तों की गर्माहट।
    बहुत खूब.... यथार्थ... आज की यही भयावह स्थिति है ,सादर स्नेह

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