मर गई गइया, (लघुकथा)
गइया ने इस बार फ़िर बछिया जन्मी थी, क्या करती कोख का पता नहीं रहता कि नर है या मादा। बछड़े की आस में बैठा रघु मरता क्या न करता, गुस्सा तो बहुत था क्या करे! बछिया मारे तो पाप न मारे तो हर नज़र करेजा में आग फुंक जाए...
चल आज तुझे ठिकाने लगाते हैं... शाम को ले गया टहलाने और कुएं में पानी दिखाने के बहाने बस एक धक्का... और गइया कुएं में...
बछिया की भी गर्दन मरोड़ फेंक आया मंदिर के पिछवाड़े... अब कलेजे में पड़ी थी ठंढक
उधर औरत की लाश तैर रही थी कुंए में और मंदिर के पिछवाड़े एक मरा बच्चा मिला था ...
पुलिस छानबीन कर रही थी और रघु साधू के भेष में घूम रहा था वृन्दावन की गलियों में...
गौशाला में डेरा डाले रघु गायों की सेवा से पाप धो रहा था और औरत को बेटी जन्माने की सज़ा मिली थी।
गौशाला में डेरा डाले रघु गायों की सेवा से पाप धो रहा था और औरत को बेटी जन्माने की सज़ा मिली थी।
सादर आभार दी
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत भावुक कर दिया आपने,मैने अपनी job के दौरान ऐसे कई cases देखे जो खुदके एक इंसान होने पर शर्म महशूस करा देते थे।
जवाब देंहटाएंउम्दा लेखन।
ओहह.....मन को झकझोरती हुई बहुत अच्छी कहानी।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया श्वेता जी, बहुत आभार
हटाएंसादर
बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी...
जवाब देंहटाएंसादर आभार सुधा जी
हटाएंभीष्म साहनी का उपन्यास 'तमस' याद आ गया. किसी का घर जले, तभी तो उसकी आंच पर इनकी रोटी सिकेगी.
जवाब देंहटाएंआदरणीय गोपेश जी, ब्लॉग पर आपका आना ही प्रेरणास्पद होता है... तमस जैसी कहानी का ज़िक्र करके आपने और बेहतर लिखने के लिए उत्साहित किया है
हटाएंसादर आभार
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18.7.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3400 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
पूरा ना सही, पर समय में बदलाव आ रहा है !
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