फितरत (लघु कथा)
फितरत
उसने ज़ोर से उस डाल को उखाड़ा और फेंक दिया हवा के साथ। मिट्टी के आंसू थे कि थमने का नाम नहीं ले रहे थे... डाल उड़ती रही ,उड़ती रही और अलग हो गई अपनी जड़ों से
पर बीज तो वही थे उसके भीतर जो सौंपे थे मिट्टी ने उसे...
डाल जंहा गिरी वंही जम गई, बांध ली उस जगह की मिट्टी को भी अपने साथ, फैला ली जड़ें और देने लगी ऑक्सीजन आस-पास के लोगों को...
डाल का क्या उसे तो अपना धर्म निभाना था, जल, थल,वायु कुछ भी हो...
उखाड़ने वाला भूल गया था शायद कि पैदाइश था वो भी किसी डाल की जो किसी और जमीन से उखाड़ कर अलग कर दी गई थी...
उखाड़ने वाले ने अपना कर्म किया था और जमने वाले ने अपना...
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20 -07-2019) को "गोरी का शृंगार" (चर्चा अंक- 3402) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
शुक्रिया अनीता जी,
जवाब देंहटाएंसादर
वाह!गागर में सागर है यह लघुकथा!
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय!
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