अँधेरे की चादर

रात और दिन में फर्क है
कि... रात में पोते जा सकते हैं नंबरप्लेट,
अंधेरे की चादर तले
सुलाए जा सकते हैं
बोलने वाले ज़िस्म,
ट्रकों और ट्रेनों के चक्के
मोड़े जा सकते हैं
श्मसान की ओर,
रात पर्दा है गुनाह पर
रात पर्दा है
सच पर....
रात में बंद होता है संसद
और न्यायालय....
उठो कि रात में सो जाता है ज़मीर,
इंसान जागने के पहले होता है मूर्छा में,
रात में हाँथ को हाँथ दिखता नहीं,
तो सच की क्या बिसात!
अंधेरे में खून और पानी एक सा
न रंग, न दर्द ,न तड़प
कुचल दो सच को...





टिप्पणियाँ

  1. निःशब्द करती रचना अंत में आह का मर्मान्तक एहसास !
    कालख केवल ट्रक की नंबर प्लेट पर नहीं पोती गयी बल्कि समाज, व्यवस्था, राजनीति, न्याय-तंत्र और प्रबुद्ध मानवता के अस्तित्व पर भी पोती गयी है. जब तक आत्ममुग्धता का नशा उतरेगा तब तक देर चुकी होगी.

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  2. क्या खूब!
    यह फासीवाद है. फासीवाद पूँजीवाद का ही एक अति सड़ा और हिंसक रूप है. इसका ख़ात्मा चुनाव या संवैधानिक तरीके से सम्भव नहीं है बल्कि मजदूर वर्ग की एकता और क्रांतिकारी संघर्ष से ही सम्भव है!

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय
      आपकी कविता पढ़ी , comment post नहीं हो रहा है
      बेजोड़ कविताएं हैं आपकी
      सादर

      हटाएं

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