पानी का बुलबुला

मूंद लो आंख
कि हर आंख ज़ख़्मी है,
हवाओं में तैर रहे हैं हिंसक छुरे,
शब्दों की पूंछ में
लगे हैं पलीते,
हर हाँथ के झुनझुने में
सुलगते शब्द;
नाप रहे हैं धरती आसमान,
डरना गुनाह है,
डराना मज़हब,
सूखे ठूंठ की फुनगियों पर
मरा पड़ा है ब्रह्मांड,
आदमी की औकात
बंद हो चुकी मुद्रा भर है,
पानी का बुलबुला
है भी और नहीं भी.

©अपर्णा बाजपेयी

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