क्रूर काल
मै इस बार उन देवों से बहुत दूर रही
जो मंदिरों में विराजते है,
जो मठों में साधना में लीन हैं,
जो चर्चों और मस्जिदों में ठहरे हैं
और जो कुलों की रखवाली के लिए
हर देहरी पर विराजमान हैं,
मैंने इस बार ईश्वर को तड़पते देखा,
सड़कों, पुलों और अंधेरी कोठरियों की पनाह लिए,
भूखे बच्चों और गर्भवतीस्त्रियों के कोटरों में,
ईश्वर मरता रहा ;
करता रहा विलाप....
सभ्य समाज की क्रूरता ने
मार दिया ईश्वर का ईश्वरतव,
सर्व शक्तिमान सत्ता ने अपने सबसे बुरे दिन देखे...
वे बंदीगृह के सबसे महान दिन थे...
©️Aparna Bajpai
Picture credit Google
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 23.7.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत आभार दिलबाग जी,
जवाब देंहटाएंसादर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २४ जुलाई २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
कविता को मंच पर साझा के लिए सादर आभार स्वेता जी
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुंंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ज्योति जी
हटाएंसादर
धन्यवाद अनीता जी,
जवाब देंहटाएंसादर
शुक्रिया Sir!
जवाब देंहटाएंसादर
भूखे बच्चों और गर्भवतीस्त्रियों के कोटरों में,
जवाब देंहटाएंईश्वर मरता रहा ;
करता रहा विलाप....
सभ्य समाज की क्रूरता ने
मार दिया ईश्वर का ईश्वरतव,
बहुत सुन्दर, मर्मस्पर्शी सृजन।