रोटी का ख़त

चूल्हे की रोटी ने संदेशा भेजा है,
गए हुए लोगों ने याद किया भाफ़ को,
रोटी के ख़त ने कहा है हवाओं से
कि कह देना उनसे!
चलें आएं वापस,
बहार लौट चुकी है,
वापसी के रास्तों पर नहीं जमी है अभी घास
पावों को याद होगा अब भी
पगडंडी पर अलसाई ओस का स्पर्श,
लौटना कभी उतना मुश्किल नहीं होता
जितना जाना,
आत्मा को अपने सामान में समेटना,
कितना तो कठिन होता है
आंगन, देहरी, दीवारों से अपना हांथ छुड़ाना,
लौटने के लिए हमेशा बची रहती है आस,
पूछना उनसे जो छोड़ गए थे घर, खेत, माता पिता,
यूं ही, रोटी रोज़गार, नून तेल सब की जुगत में..
इस बार लौटे तो खाली दालान ने कैसे की अगवानी,
टूटे छप्पर ने लोरी गाई 
कुंए के पानी ने ख़ाली पेट को तर किया या नहीं...
कहना उनसे कि बांध लें असबाब,
खेतों में मकई ने बांध दिया है समा,
नन्हकू के छपरा पर फैला है कुम्हड़ा,
अमरूद भर दे रहा है आंगन अपने बेटों से..
और इस बार आना
वापसी का टिकट फाड़ कर फेंक देना रास्ते में
गांव की बात गांव में , घर की बात घर में...
अब सरकारी डायरियों में शहर की भीड़ छंट जाएगी।

©️ अपर्णा बाजपेई

चित्र प्रभास कुमार की फेसबुक वाल से साभार

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. नमस्ते,

    आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 17 सितंबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!


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    उत्तर
    1. आदरणीय रवीन्द्र जी,
      रचना को लिंक करने के लिए सादर आभार

      हटाएं
  3. लौटना कभी उतना मुश्किल नहीं होता
    जितना जाना,
    आत्मा को अपने सामान में समेटना,
    कितना तो कठिन होता है
    आंगन, देहरी, दीवारों से अपना हांथ छुड़ाना,
    लौटने के लिए हमेशा बची रहती है आस,
    शहरी चकाचौंध में भरमाया मन जब लौटने की चाह नहीं रखता तब मुश्किल क्या नामुमकिन हो जाता है लौटना....और उधर घर आँगन आस लगाये रहता है...
    बहुत ही सुन्दर लाजवाब सृजन।

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  4. कविता में उपमाएँ और प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी।

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