खिड़की
कमरे की बंद खिड़की के पास,
एक चुप
चुपके से खिसक आती है,
सीकचों से झांकती है घूंघट के भीतर का आकाश,
हवा धीरे से छू लेती है उसकी अल्कों का दामन
और चुप; चुपचाप ढक कर अपनी रूह के निशान,
खिड़कियों के पीछे छाप देती है
अपनी हंथेलियों के अनकहे रंग।
©️ अपर्णा बाजपेई
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 08 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
दिलबाग जी आभार, रचना को मां देने के लिए
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत बहुत सृजन।
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