वक्त से उम्मीद कुछ ज्यादा रही थी

 वक्त से उम्मीद कुछ ज्यादा रही थी,
आज एक सरिता कहीं उल्टा बही थी
रुक गए थे हांथ में पतवार लेकर
मौज से कस्ती ने कुछ बातें कही थीं...


था अंधेरा हांथ में दीपक रखा था,
शाम ने जुगनू से एक मुक्त्तक कहा था,
धूप ने सींची थी वे कंपित गुफ़ाएं,
तम ने जिनमें मौन का संबल रखा था...

दोस्ती ने हांथ में खंजर रखा था,
पीठ पीछे शब्द ने गड्ढा बुना था
हांथ अपना कट चुका था बरसों पहले
देर से कितना कोई नश्तर चुभा था।

राह रोके खड़ी थीं कुछ वर्जनाएं
देहरी से दीप कुछ पीछे हटा था
लौटना था जिस तरफ हरदम अकेले
हांथ वहीं आकर सहसा कटा था

लौट आना फिर कभी कोई न बोला
ये जगह बस आपकी होकर रहेगी
स्वप्न सारे जीते होंगे जो कहानी
आज जाग्रत देह जिएगी दीवाली।।

©️Aparna Bajpai




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