प्रेम में
उन्होंने मछलियों से प्रेम किया
खींच लाये उन्हें पानी से बाहर,
भले ही इस बीच वे ज़िंदा से मृत हो चुकी थीं;
पानी जो उनका लिबास था
घर था और था जिंदगी की पहली जरूरत,
प्रेम में पानी को पत्थर बनते देखा,
पानी जो गवाह था मरती हुई मछली की तड़प का,
मछलियां मर रही थीं
पानी मर रहा था,
ज़िंदा था तो बस प्रेम!
मनुष्य का प्रेम
मृत्यु का सबसे बड़ा सहोदर है।
©️Aparna Bajpai
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-3-21) को "सीमित है संसार में, पानी का भण्डार" (चर्चा अंक 4014) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
वाह बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सृजन मन को छूती अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंमछलियों के प्रति मानव व्यवाहार का सराहनीय शब्द चित्र उकेरा है।
सादर
उफ़, प्रेम के नाम पर मृत्यु का तांडव !
जवाब देंहटाएंबहुत गहरा प्रहार किया आपने मनुष्य के क्रूर प्रेम पर। बधाई।
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आपका स्वागत है वीरेंद्र जी, प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार
हटाएंअपना प्रेम पाने के लिए प्रेम की जान लेने वाले प्रेम का सच्चा अर्थ कभी नहीं समझ सकते...।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सार्थक सृजन।
आदरणीय सुधा जी, आपका स्नेह मेरे लिए संजीवनी है उसे बनाये रखें...
हटाएंसादर
मानव प्रेम पर बहुत सुंदर कटाक्ष प्रस्तुत करती कविता!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दोस्त!
हटाएंप्रिय अपर्णा बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति | सरल शब्दों मेनन प्रेम की दास्तान जो प्रेम के दो रूपों से अवगत कराती है | एक प्रेम मछली का जल के साथ तो दुसरा स्वार्थी प्रेम मानव का जो क्रूर भी है निर्मम भी जिसमें उसकी आँख कै पानी का मरना साफ़ दिखता है | एक कवि मन ही समझ सक्या है ये संवेदनाएं | सस्नेह |
जवाब देंहटाएंदीदी आपके आशीर्वचनों का सादर आभार, आपका स्नेह ऊर्जा का अक्षय श्रोत है।
हटाएंसादर
सादर आभार अमृता जी
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