मर्द हूं, अभिशप्त हूं

मर्द हूँ, 
अभिशप्त हूँ, 
जीवन के दुखों से 
बेहद संतप्त हूँ। 
बोल नहीं सकता 
कह नहीं सकता 
सबके सामने 
मै रो नहीं सकता.
भरी भीड़ में रेंगता है हाँथ कोई 
मेरी पीठ पर;और मैं
कुछ नहीं बोलता,
कह नहीं सकता कुछ; 
भले ही बॉस की पत्नी 
चिकोटी काट ले मेरे गालों पर सरेआम. 
मै चुप रहता हूँ;जब मेरी मां 
ताना देती है मुझे 
अपने ही बच्चे का डायपर बदलने पर....
रात भर बच्चे के साथ जगती पत्नी 
कोसती है मुझे 
और मै कुछ नहीं करता; 
आज तक नहीं सीख पाया 
नन्हे शिशु को गोद में लेना, 
कान में गूंजती है माँ की हिदायत 
गिरा मत देना बच्चे को;
और मै! 
सहम कर छुप जाता हूँ 
चादर के भीतर; 
भले ही तड़पता रहूँ पत्नी और बच्चे के दर्द पर.
सोशल मीडिया के पन्ने 
भरे हैं औरत के दर्द से; और मै  
चुपचाप कोने में खड़ा हूँ. 
दिन भर खटता हूँ रोजी कमाने को 
फिर भी; सामाजिक भाषा में 
मै बेवड़ा हूँ.
मालिक हूँ,
देवता हूँ,
पिता हूँ ,
बेटा हूँ,
हर रिश्ते में बार-बार पिसा हूँ. 
मर्द हूँ,
अभिशप्त हूँ 
जीवन के दुखों से 
बेहद सन्तप्त हूँ।


टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 18 मई 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
    अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।

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  2. मर्द के दर्द को उकेरती भावपूर्ण रचना ।।

    जवाब देंहटाएं

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