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यार ठहरो न कुछ देर और!

 जाते हुए नवंबर से 

आते हुए दिसंबर से 

कोई पूछता नहीं 

हाल- चाल, चाय - कॉफी,

नहीं कहता, यार ठहरो न कुछ देर और! 

बड़ा अच्छा रहा तुम्हारा साथ, 

रखकर हाथ सीने पर सुनाता नहीं कोई धड़कने,

 भूल जाता है शुक्रिया में झुकना, 

दिनों महीनों का साथ क्या यूं ही भूल जाएं 

स्मृतियों की ज़िल्द इन तारीखों से ही बनती है।।



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तुम बस थोड़ा जोर से हंसना

 तुम बस थोड़ा जोर से हंसना  इतनी जोर से कि दिमाग में यह ख्याल रत्ती भर भी ना आए कि हंसने से आंखों के नीचे उभर आती हैं झुर्रियां , कि गालों पर उम्र की रेखाएं थोड़ी ज्यादा पैनी नज़र आती हैं ,  कि हंसने पर तुम्हारे दांत थोड़े पीले दिखते हैं , बस हंसना और महसूसना उस खुशी को जो हंसने में तुम्हें महसूस होती है , अपने चेहरे की बनावट, उम्र का असर और अनुभव की सुर्ख़ियों को कुछ देर के लिए भूल जाना , हंसना कि हंसने से रोशन होती है सारी फिज़ा , मिट जाता है गुबार, आसमान का रंग थोड़ा और नीला हो जाता है और धरती! थोड़ी और हरी।। ©अपर्णा बाजपेई 

आहिस्ता -आहिस्ता

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हम सफेदपोश!

आओ न थोड़ी सादगी ओढ़ लें थोड़ी सी ओढ़ लें मासूमियत काले काले चेहरों पर थोड़ी पॉलिश पोत लें नियत के काले दागों हो सर्फ़ से धो लें. उतार दें उस मज़दूर का कर्ज जो कल से हमारे उजाले के लिए आसमान में टंगा है भूखा प्यासा होकर भी काम पर लगा है. खेतों में अन्न उगाकर दाना दाना दे जाता है बाद में क़र्ज़ से खुद ही मर जाता है हर छोटी-बड़ी घटना पर जो आवाज उठाते हैं हमारे सनातन मौन से मुंह की खाते हैं. कभी गाँव में कभी जंतर मंतर पर भीड़ लगाते हैं अपना पेशाब पीकर हमें डराते हैं. खुदकुशी करके हमारा क्या बिगाड़ लेंगे हिंसक रूप धरकर भी हमसे क्या पा लेंगे मारेंगे अपने ही भाई बिरादरों को! पुलिस में सेना में उन्हीं के रिश्तेदार हैं हम तो जाने -माने मक्कार हैं उन्हीं के लिए गड्ढा खोद उन्हीं के घर खाते है हर घटना पर 'कायराना हरकत है ' कह साफ़ मुकर जाते हैं. कब तक उन्हें  सब्सिडी का चोखा खिलाएंगे कभी तो उनको असली कीमत बताएँगे वो कहते हैं गज़ब की मंहगाई है जानते नहीं इसमें उन्ही की जग हंसाई है सरकारी अस्पतालों में भीड़ लगाते हैं कुछ हो जाए तो सरकार को गरियाते हैं ये नहीं कि प्राइवे