मांग का मौसम


प्रेम की मूसलाधार बारिश से
हर बार बचा ले जाती है खुद को,
वो तन्हा है.......
है प्रेम की पीड़ा से सराबोर,
नहीं बचा है एक भी अंग इस दर्द से आज़ाद.
जब-जब बहारों का मौसम आता है,
वो ज़र्द पत्ते तलाशती है खुद के भीतर,
हरियाले सावन में अपना पीला चेहरा...
छुपा ले जाती है बादलों की ओट,
कहीं बरस न पड़े.....
उसके अंतस का भादौं;
पलकों की कोर से.
जिया था उसने भी कभी.....
हर मौसम भरपूर.
मांग में;
पतझड़ का बसेरा हुआ जब से,
सूख गयी है वो....
जेठ के दोपहर सी;
कि अब, बस एक ही मौसम बचा है
उसके आस-पास
वैधव्य का......

टिप्पणियाँ

  1. कहीं बरस न पड़े.....
    उसके अंतस का भादौं;
    पलकों की कोर से.
    जिया था उसने भी कभी.....
    हर मौसम भरपूर.
    मांग में;

    bahut khub likha hai.
    Mausam ka manviyakaran kar diya.

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 15 अक्टूबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर उपमाओं से सजी आपकी हृदयस्पर्शी रचना अपर्णा जी।बहुत अच्छी लगी।वैध्व्य जीवन जी रही नारी की मन की व्यथा को शब्द देने का सराहनीय प्रयास किया आपने।बधाई स्वीकार करें।

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  4. जिया था उसने भी कभी
    हर मौसम भरपूर....
    लाजवाब रचना....

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  5. अपर्णा जी, बहुत ही कठिन विषय को छुआ है आपकी लेखनी ने ! मन में गहरे उतर जाने वाले भावों को,वैधव्य की अथाह पीड़ा को इतने कम शब्दों में व्यक्त करना दुष्कर होता है । बहुत ही प्रभावपूर्ण रचना है ये आपकी। हार्दिक बधाई स्वीकारें ।

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  6. आप सभी की आभारी हूं इस प्रोत्साहन, प्रेम और आशीर्वाद के लिये.कृपया अपना स्नेह बनाये रखें.

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