चीनी मंहगी, गुड़ भी मंहगी 
मंहगा दूध मिठाई है, 
खील बताशे मंहगे हो गए 
क्योँ दीवाली आयी है?
एक नहीं, दो नहीं, दस नहीं 
खुशियों से है भरा बाज़ार, 
कुछ लोगों की जेबें भरता 
जाल बिछा है अपरम्पार.
खाली चूल्हा, जेबें खाली 
अपने हिस्से आया शून्य,
सब चीजों का दाम बढ़ गया 
मानव का बस घट गया मूल्य.
रेल टिकट का दाम बढ़ गया 
भैया कैसे आऊँ मै?
रोली अक्षत मंहगे हो गए 
कैसे प्यार लुटाऊँ मै?
लिखती हूँ कुछ शब्द नेह के 
यही हमारा हैं त्यौहार,
कुछ पढ़ना कुछ जी लेना तुम 
इन्हें समझ लेना उपहार.
(Image credit google)

वाह ! अपर्णा जी इकतरफ़ा दौड़ती भीड़ में भी अपनी आवाज़ बुलंद करने में माहिर हैं। इस पक्ष पर भी हमारी निगाह ठहरनी चाहिए। सुंदर रचना जोकि आक्रोश और कचोट का मिश्रण है। एक आवाज़ है जो ख़ुशी के शोर में अनसुनी हो गयी है।
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाऐं।
भावपूर्ण कविता, सुंदर |
जवाब देंहटाएंसुन्दर।
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत सुंदर कविता !!
जवाब देंहटाएंसुभा जी स्वागत है आपका. उत्साहवर्धन के लिये सादर आभार.
हटाएंआप सभी का उत्साह्वर्धन के लिये सादर आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ... इस महंगाई में त्यौहार भी फीके हो जाते हैं ...
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