बिनब्याही


बार- बार उलझ जाती हैं बुआ की नज़रें 
लाल-लाल चूनर में,
पैंतालीस की उम्र में भी बुआ;
झांकती हैं धीरे से झरोखा 
कि देख न ले कोई कुंआरी लड़की को झांकते हुए,
दरवाजे पर आज भी नहीं खड़ी होती,
चुपचाप हट जाती हैं पति या प्रसूति से जुड़ी बातों को सुन,
आज भी लजाती हैं बुआ किसी बंशीवाले की धुन पर, 
छत के उस पार चुपचाप बैठी मिलती हैं कभी- कभी,
हांथो की लकीरों में खोजती हैं ब्याह की रेखा,
दादी अब भी रखवाती हैं सोमवार, गुरुवार के व्रत,
बेटी की पेटी के लिए सहेजती हैं हर नया कपड़ा,
बाबा हर साल बांधते हैं उम्मीद,
इस साल ब्याह देंगे बेटी को जरूर,
न बाबा का कर्ज उतरता है न आती है बरात,
बीतते जाते हैं साल दर साल,
बढ़ती जाती है उम्मीदों की मियाद,  
बुआ हर रात करवटें बदलती हैं, 
देखती हैं सपना
लाल-लाल चूनर का, 
पति और ससुराल का, 
बच्चे और गृहस्थी का......... 
हे -हे -हे 
अब भी नासमझी करती हैं बुआ,
जानती नहीं
कितने मंहगे हैं दूल्हे इस बाज़ार में.


(image credit google)





टिप्पणियाँ

  1. प्रिय अपर्णा -- सामाजिक और ज्वलंत विषयों पर आपका लेखन बेजोड़ है इस साल ब्याह देंगे बेटी को जरूर,
    न बाबा का कर्ज उतरता है न आती है बरात,
    बीतते जाते हैं साल दर साल,
    बढ़ती जाती है उम्मीदों की मियाद, --
    कितने मर्म स्पर्शी भाव और वेदना के प्रखर स्वर हैं रचना में !!!!!!!!
    कुंआरे सपने आखों में ही दम तोड़ देते है क्योकि दूल्हे सचमुच महंगे हैं बाजार में | बिनब्याही बुआ के माध्यम से न जाने कितने विपन्नता से जूझ रहे भाइयों और पिताओं की कहानी कह दी आपने | बहुत सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामना आपको |

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    1. प्रिय रेनू दी, आपका स्नेह सर आंखों पर.बहुत बहुत आभार इतनी प्रेरक प्रतिक्रिया देने के लिये.आपके असीम नेहकी आकांक्षी.
      सादर

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  2. सच एक उम्र के बाद सपना खुद को तो कचोटता ही है लेकिन उससे ज्यादा चिंता घर परिवार को भी लगी रहती है
    सच हैं दूल्हों का बाजार आज भी बड़ा महंगा है '
    बहुत सुन्दर

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30-11-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2803 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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    उत्तर
    1. चर्चा में मेरी रचना को स्थान देने के लिये सादर आभार दिलबाग जी
      सादर

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  4. बहुत खूबसूरती से शब्दों को सजाकर भावनाओं को व्यक्त किया है। गरीबी का ठीकरा कभी बेटी के सर नहीं फोड़ना चाहिए क्योंकि उसका ब्याह तो नियति से होता है।
    दो तरह की नियति पहली प्रभु की मंजूरी दूसरी एक पिता का अर्थ-तंत्र।

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  5. एक ज्वलंत प्रश्न खड़ा है आज भी इतना सार्थक जितना कल था ...

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  6. दारुण अन्दर तक मथ गई रचना
    कितनी आंखों के सपने यूं भुवा जैसे बिना परवान चढ़े रोज टूटते हैं।
    खोज खोज कर दैनिक जीवन की खिड़कियों से अन्दर झांकता आपका काव्य यथार्थ की कठोर धरातल पर।
    अप्रतिम अविस्मरणीय।

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