तुम बस थोड़ा जोर से हंसना इतनी जोर से कि दिमाग में यह ख्याल रत्ती भर भी ना आए कि हंसने से आंखों के नीचे उभर आती हैं झुर्रियां , कि गालों पर उम्र की रेखाएं थोड़ी ज्यादा पैनी नज़र आती हैं , कि हंसने पर तुम्हारे दांत थोड़े पीले दिखते हैं , बस हंसना और महसूसना उस खुशी को जो हंसने में तुम्हें महसूस होती है , अपने चेहरे की बनावट, उम्र का असर और अनुभव की सुर्ख़ियों को कुछ देर के लिए भूल जाना , हंसना कि हंसने से रोशन होती है सारी फिज़ा , मिट जाता है गुबार, आसमान का रंग थोड़ा और नीला हो जाता है और धरती! थोड़ी और हरी।। ©अपर्णा बाजपेई
फिर ही जनता चुनती है ... यही मजबूरी है शायद ...
जवाब देंहटाएंनासवा जी, सादर आभार
हटाएंWe all misfit.
जवाब देंहटाएंTrue said.
यही तो मज़बूरी है जनता की कि उसे पांच साल में एक बार मौका मिलता है फिर भी अच्छे लोग नहीं चुने जाते। सब पैसे का खेल बन गया है।
जवाब देंहटाएंअनीता जी,लोकतंत्र अब मजाक बन गया है.
हटाएंमेरी रचनाओ पर आपकी प्रतिकृयायें मिलती हैं तो लगता है कोइ है जो बहुत करीब से देख रहा है इन शब्दों में छुपी कहानियों को.
आप का बहुत बहुत आभार. इसी तरह अपना स्नेह बनाये रखिये .
सादर