ख़त
उजड़े हुए खतों ने आज फिर दस्तक दी,
चाँद शरमाया,
सिमटा,
लरज गया मात्र सरगोशी से
उफ़ान पर थे बादल,
बरसने को बेताब।
हवा ने थामा हाँथ,
ले गयी दूर.....
कहा!
यादों के सिरे थाम कर;
बहकाना गुनाह है.
खतों का क्या,
बिन पता होते हुए भी
पंहुच ही जाते हैं,
प्यार पंहुचा ही देते है प्रिय के पास,
जान शब्दों में नहीं,
एहसासों में होती है,
और ख़त........
एहसासों का शरीर।
(picture credit google)
बहुत खूब!!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आदरणीय । सादर
हटाएंवाह! रुमानियत से लबरेज़।
जवाब देंहटाएं������
तुमने तो खत को भाव और लिबास दोनों में पिरो दिया।
वो खत ही तो हैं जो दिलाते हैं करीब होने का अहसास।
बहुत सुंदर अपर्णा जी। भावों से लबरेज प्यारी कविता।
जवाब देंहटाएंपता पूँछ कर आओगे तो क्या बस मेरा घर मिलेगा,
जवाब देंहटाएंबिन पते भटकोगे तो ज़र्रे-ज़र्रे से मेरी पहचान होगी।
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंमन को भा गई आप की रचना
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंमन को भा गई आप की रचना
बेहद खूबसूरत रचना.
जवाब देंहटाएंBehad khubsoorat Rachana Aparna.
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 04 फरवरी 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमन के सुंदर एहसासों को साकार करती रचना ०० प्रिय अपर्णा -- बहुत अच्छा लिखा आपने | सस्नेह शुभकामना --
जवाब देंहटाएंसरल साफ और स्पष्ट रचना
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