प्रेम की उतरन


अंजुरी में तुम्हारी यादों का दिया जला
पढ़ता रहा हमारी अनलिखी किताब.
हमारा साथ अंकित था हर पृष्ठ पर,
हमारा झगड़ा और वो
अनोखी सुलह.....
जब तुमने हमारे रिश्ते के लिए
बाज़ार की शर्त लगा दी.......
और मै!
कांपता ही रहा अनोखे डर से.
मेरी हंथेली में तुम्हारी रेखा नहीं थी
और तुम ....
नसीब पर ऐतबार कर रही थी.
चाहा था मैंने भी उतना ही
जितना तुमने;
साथ हमारा खिले
सुर्ख गुलाब सा।
सूखे गुलाबों की पंखुड़ियां
महकती हैं अब भी,
उड़ते हैं मोरपंख,
गौरैया का घर टंगा है अब भी वंही,
स्वप्नों की कतरने
सजी हैं दीवारों पर,
तुम भी हो,
मै भी हूँ,
बस हमारा रिश्ता
बाज़ार में बिक गया ।

(Picture credit google )




टिप्पणियाँ


  1. बेहद सुन्दर‎ भावाभिव्यक्ति.

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  2. स्वप्नों की कतरने
    सजी हैं दीवारों पर,
    तुम भी हो,
    मै भी हूँ,
    बस हमारा रिश्ता
    बाज़ार में बिक गया।
    आदरणीया अपर्णा जी आपने इन शब्दों को इस कदर पिरोया है कि इनका भाव और अभिव्यक्ति बहुत ही सुंदर है।

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    1. आदरणीय सोनू जी , आपकी सराहना के लिए सादर आभार । ब्लॉग पर आपकी प्रतीक्षा रहेगी ।
      सादर

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  3. उत्तर
    1. आदरणीय ज्योति दी , बहुत बहुत शुक्रिया । मई आपके विविध रंगी लेखन की कायल हूँ। आप हर विषय में महारत रखती हैं । कई बार आपके ब्लॉग पर जाकर राय नहीं दे पाती हूँ पर कोई भी लिंक दिखने पर पढ़ती अवश्य हूँ।
      आपको सादर नमन।

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    2. बहुत सुन्दर ! बशीर बद्र का एक शेर याद आ गया - कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता.'

      हटाएं
    3. आदरणीय गोपेश जी
      ब्लॉग पर आने और उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.
      आगे भी आपकी प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा है.
      सादर

      हटाएं
  4. उत्तर
    1. आदरणीय ज्योति जी , ब्लॉग पर आपका स्वागत है । प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार

      हटाएं
  5. बहुत ही खूबसूरत पंक्तियां

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  6. संवेदनशील प्रस्तुति... बहुत ख़ूब!
    बधाई व शुभकामनाएं ।

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  7. आदरणीय रवीन्द्र जी , मेरी रचना को पटल पर रखने के लिए हार्दिक आभार ।
    सादर

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  8. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08-02-2018 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2873 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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    उत्तर
    1. आदरणीय दिलबाग जी
      मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए सादर धन्यवाद ।

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  9. वाह्ह...क्या बात है बेहद सुंदर रचना अपर्णा जी।

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  10. स्वप्नों की कतरने
    सजी हैं दीवारों पर,
    तुम भी हो,
    मै भी हूँ,
    बस हमारा रिश्ता
    बाज़ार में बिक गया ।--
    विरही मन का वीत राग -- बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना प्रिय अपर्णा ०० सस्नेह --

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