छल

मै इस बार थोड़ा और छली गई
खुद से
खुद ने छोड़ा हाथ,
उम्मीद ने छोड़ा दामन
रौशनी ने तोड़ा आंखों का भरोसा,
वर्षों ने गलत गिनती बताई,
प्रेम ने रोटी के बीच रख दिए कुछ सिक्के,
आवाज़ ने भाषा का पुल तोड़ दिया,
मै गुलाब में रजनीगंधा खोजती रही,
पाषाण ने पानी को कर लिया कैद अपने गर्भ में,
पेड़ों के बच्चों ने किलकारी नहीं भरी
धरती ने करवट बदली और टिक गई स्त्री की पीठ पर,
अब 'छल' स्त्री और स्त्री के बीच 'प्रेम' बन ज़िंदा है..



©️ Aparna Bajpai
Picture credit Google


टिप्पणियाँ

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (20-07-2020) को 'नजर रखा करो लिखे पर' ( चर्चा अंक 3768) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

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    उत्तर
    1. आदरणीय रवीन्द्र जी, मंच पर स्थान देने के लिए आभार
      सादर

      हटाएं
  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 20 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. वाह ! बहुत सुन्दर रचना ! बहुत खूब !

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  4. वाह बहुत गहन छोटे में कितना कुछ कहती प्रतीकात्मक शैली की सुंदर रचना।

    जवाब देंहटाएं
  5. आवाज़ ने भाषा का पुल तोड़ दिया,
    मै गुलाब में रजनीगंधा खोजती रही,
    वाह क्या शानदार लेखन है। बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर बहुत खूब
    आपकी रचनाएं बहुत खुबसरत है
    हाल ही में मैंने ब्लॉगर ज्वाइन किया है आपसे निवेदन है कि आप मेरी कविताओं को पढ़े और मुझे सही दिशा निर्देश दे
    https://shrikrishna444.blogspot.com/?m=1
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी, मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है...
      आपके ब्लॉग पर सीघ्र पहुंचती हू,
      बहुत शुक्रिया
      सादर

      हटाएं
  7. धरती ने करवट बदली और टिक गई स्त्री की पीठ पर,
    अब 'छल' स्त्री और स्त्री के बीच 'प्रेम' बन ज़िंदा है..
    वाह!!!
    क्या बात...
    बहुत ही लाजवाब सृजन।

    जवाब देंहटाएं

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