चौधराइन का हुक्का (लघु कथा)

 चौधरी का हुक्का.. क्या कहा जाय!  सबके मुंह लगने को बेताब.. मगर चौधराइन जब  देखो तब, दरवाजे की ओट में रख देती हैं कि कोई दरवाज़े के सामने से पार हुआ नहीं कि मियां बुला लेंगे और हुक्का तफ़री शुरू...   चौधराइन अपनी दादी की आख़िरी निशानी के तौर पर मायके से लाई थी, तब से पूरे गांव का दुलारा बना हुआ है चौधराइन का हुक्का। अब ख़ुद भी अस्सी बरस की हो गईं हैं और चौधरी तो नब्बे पार कर रहे होंगे लेकिन हुक्के की लत न छूटी।

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हुक्का भी सबको पहचानता है, अब्दुल पठान हों या बंशीधर पंडित..उंगलियों का स्पर्श बखूबी जानता है. जनानी उंगलियों की छुअन तो हुक्के के भीतर का पानी भी समझ जाता है। 

एक दिन हुआ यूं कि रामरतन की दादी का हुक्का टूट गया और दादी के दिमाग की सारी गालियां रामरतन की दुलहिन पर न्योछावर हो गईं.. रामरतन को नया हुक्का लाने का आदेश हो गया.. अब उसी दिन उसी समय  हुक्का कैसे आये.. राम रतन परेशान... न लाया तो दादी का खाना हज़म नहीं होगा और पूरा घर उनके पेट की  गैस पुराण सुनते सुनते पागल हो जाएगा . 


राम रतन ने साईकिल निकाली और चल पड़ा शहर की ओर।  इधर सुबह से शाम हो गई राम रतन को कहीँ हुक्का नहीं मिला। शहर की गली-गली , दुकान-दुकान छान मारी। जिस भी दुकान पर पूछता वही कहता,"किस ज़माने की बात कर रहे हो भैया, आजकल हुक्का कौन पीता है! अब बाज़ार में हुक्का मिलना बहुत मुश्किल है। नए ज़माने का नया नशा। कुछ भी ले लीजिए"। राम रतन उन्हें कैसे बताये कि दादा के यार दोस्तों को एकसाथ जोड़ता है। दादी हुक्के के बिना मरना पसंद करेंगी जीना नहीँ।

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शहर की सड़कों पर साईकिल दौड़ता हुआ रामरतन सोचता है घर कैसे जाय, दादी को क्या बतायेगा कि उनकी ख़ातिर एक हुक्का न ला सका। रात हो गई। मायूस होकर घर पंहुचा तो दादी आँगन में बेचैनी में टहल रही थीं। राम रतन को देखते ही बोली, " हुक्का नहीं लाए , आज खाना हज़म नहीं हुआ।  पेट भारी है, हांथ-पांव में ऐंठन हो रही है"।

राम रतन मन ही मन सोच रहा है कि दादी को कैसे बताये कि बाज़ार से हुक्का ग़ायब हो गया है। अब न लोग बैठते हैं,  न हुक्का पानी का रिश्ता रखते हैं।







टिप्पणियाँ

  1. हुक्के पानी के रिश्ते का ख़त्म हो जाना ही एक दर्दभरी सच्चाई है आज के समाज की। जिस पीढ़ी ने ऐसे जज़्बाती रिश्ते देखे ही नहीं, वह इस दर्द को कैसे समझ सकती है ? मन भारी हो गया पढ़कर।

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  2. हुक्का पानी का रिश्ता... बहुत ही सुन्दर लघुकथा।

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  3. प्रिय अपर्णा, ये मार्मिक लघुकथा पढकर आँखें नम हो गई।हुक्का सामाजिक एकता का सशक्त प्रतीक था किसी समय।मुझे भी मेरे दादा जी के सुन्दर हुक्के की अनायास याद आ गई ,जिसे वे बहुत ही स्नेह और गर्व से चमका कर रखते थे।उसका नीचे पीतल का लोटा मजाल है कि जरा सा भी मलिन हो जाये।चौधराइन जैसे पात्र उसी परम्परा की जर्जर कडी हैं।और रामरतन जैसी सन्ततियाँ चौधराइन जैसे आत्मगर्वित लोगों की विरासत को चाहे- अनचाहे निभाने वाली अन्तिम पीढ़ी।
    प्रसंगवश कहना चाहूंगी कि हुक्का पानी बंद करने के बहाने हुक्का एक वर्चस्व का प्रतीक भी था किसी समय।और कथित सभ्रांत लोग हर किसी से हुक्का साझा नहीं करते थे।और हरियाणा में जो हुक्का माओँ के लिए होता था वह बहुत छोटा होता था।मैने अपने बचपन में किसी महिला को पुरुषों का हुक्का पीते हुए नही देखा। और हमारे यहाँ औरतों वाले छोटे से हुक्के, जिस पर चिलम भी बहुत छोटी होती थी, को कली कहा जाता था ।

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    1. प्रिय रेनू दी, कहानी पर आपकी अत्यंत सारगर्भित प्रतिक्रिया पाकर हर्षित हूं। यह कहानी मात्र उन पुरानी चीजों के प्रति बुजुर्ग लोगों के प्रेम को प्रदर्शित करती है और पुरानी चीजें कैसे धीरे-धीरे गायब हो रही हैं यह बताने की कोशिश मात्र है।
      जहां तक सवाल औरतों और मर्दों के लिए अलग तरह के हुक्के/चिलम की बात है तो कहानी का चरित्र हबीब मियां के घर का हुक्का है जो वे दोनों मजे से पीते थे । बड़ी अम्मी आँगन में रखा हुक्का कमरे में बैठ कर पी लेती थी। वे घर आने वालों को पेशकश भी करते थे। बचपन में मेरे दादा जी के कई दोस्त मुसलमान थे और उनके घरों में हमारा आना जाना बहुत आम था।

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  4. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 22 जुलाई 2022 को 'झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये बाग के' (चर्चा अंक 4498) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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    1. धन्यवाद रवींद्र जी, रचना को मंच पर स्थान देने के लिए
      सादर

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  5. चौधराइन का हुक्का पढ़कर मुझे मेरी सासू माँ की याद आ गयी, इस बारे में मैंने भी उन्हें याद कर लिखा है। अच्छा लगा याद करना फिर से

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  6. उत्तर
    1. अपर्णा बाजपेई23 जुलाई 2022 को 10:27 am बजे

      धन्यवाद आदरणीय , सादर

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