लखनऊ
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तुम्हारी हथेलियों की हिना में मेरा नाम कुछ यूं खोया
मानो लखनऊ की भूल भुलैया में नीचे उतरना है कि ऊपर चढ़ना है समझ ना आया
मैं इमामबाड़े सा अपने आप को अकेला पाता रहा ,
तो कभी रूमी गेट के उस पार बड़ी देर तुम्हारे इंतजार में खड़ा रहा
तुम नीबू पार्क की दहलीज पर कुछ यूं मुस्कुराए मानो गोमती का किनारा तुम तक चल कर आ रहा हो
और कहता हो कि मुझ में तुम यूं बसे हो जैसे बसी है तहज़ीब लखनऊ में। ।
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१२-०९ -२०२२ ) को 'अम्माँ का नेह '(चर्चा अंक -४५५०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
धन्यवाद अनीता जी
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआभार दी
हटाएंसादर
लखनऊ का जादू इस रचना में घुल गया। यह शहर असर ही ऐसा करता है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दी, रचना को मंच पर स्थान देने के लिए,
जवाब देंहटाएंसादर
सादर आभार, ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंगज़ब
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
धन्यवाद विभा दी, सादर
हटाएंवैसे भूलभुलैया में गुम न होना हो तो सीढियाँ जहाँ भी दिखें बस ऊपर चढ़ते जाएँ । ऐसे आप इमामबाड़े की छत पर पहुंच जाएँगे और फिर सीधी सीढियाँ आपको बाहर नीचे पहुंचा देंगी ।
जवाब देंहटाएंबाकी इमामबाड़े की खूबसूरती जैसी खूबसूरत रचना ।
जी, दीदी आपने सही रास्ता बताया। वैसे प्रेम की भूलभुलैया से निकलने का रास्ता बड़ा मुश्किल होता है।
हटाएंसादर आभार
गजब तहज़ीब-ए-बयां...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया जी,
हटाएंखूबसूरत रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद , सादर
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