आहिस्ता -आहिस्ता
समय हो तो अपनी हथेली पर भी रख लेना एक फूल, घूम आना स्मृति के मेले में, कहानी की किताब में झांक कर, कर लेना बातें ' पंडित विष्णु शर्मा ' से, या घर ले आना ' नौकर की कमीज़ ' सुन लेना रजनीगंधा की फूल या ठुमक लेना ' झुमका गिरा ' की धुन पर कह लेना खुद से भी "Relax ! चंद कदम ही तो हैं, चल लेंगे आहिस्ता-आहिस्ता हम भी, तुम भी।।
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंशुक्रिया नदीश जी
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत मर्मान्तक है आपके शब्द- प्रिय अपर्णा | आँखें नमी से बोझिल हो गयी और खुद से नजरे चुराने लगी | यही है सभ्य समाज का वीभत्स सत्य !
जवाब देंहटाएंजीवन के हर पहलू का सत्य!!!! आपकी लेखनी और लेखन कमाल कमाल कमाल।
जवाब देंहटाएंशुभ संध्या ।
कडुवा सत्य,ना जाने कैसे इतनी असमानताएं बड़ गई,जुठे भोजन के लिए भी इंसानियत भर्ती हैं हर रोज .. मार्मिक अहसास.!!
जवाब देंहटाएं