मृत्यु से पहले की उम्मीद ( #Road Accident)



दूर हूँ बहुत 
उनसे ,तुमसे ,खुद से, 
अपनी ही साँसे पता नहीं चल रहीं, 
नहीं मालूम दिल धड़क भी रहा है या नहीं,
जानता हूँ, ज़िंदा हूँ अभी 
लहू- लुहान पड़ा हूँ
आँखें बंद, होंठ खामोश 
प्यास का लहलहाता समंदर 
बस जीने की तड़प है बाकी है,
न जाने कौन आयेगा सड़क के इस पार, 
बचाएगा मुझे; या मुंह फेर चला जाएगा अपनी राह,
जैसे मैं गुज़र जाता था सड़क पर पड़े घायलों को देख,
जानता हूँ व्यस्त हैं सब, 
मर गयी है सम्वेदना, 
फिर भी है उम्मीद........ 
कोई न कोई बचा ही लेगा 
ज़िंदा होगा इंसान किसी न किसी शरीर में जरूर...
और अगर न बचाए कोइ मुझे;
हे इश्वर!  ये उम्मीद बचाए रखना 
कि ज़िंदा है इंसानियत इंसान के भीतर।

(Image credit google)


टिप्पणियाँ

  1. मेरा अनुभव...अभी जिन्दा है संवेदना लहलहा रही है ममता इन्सानिय की फसल।

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    1. आदरणीय पुरुषोत्तम जी , सादर आभार, ईश्वर करे हर घायल का अनुभव आप जैसा ही हो.
      सादर

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  2. जब पास आ खडे होते मौत के साये
    सब करम याद आने लगते हैं अपने।

    बहुत ही सुंदरता से आपने बेबसी और यथार्थ का चित्रण किया हर दिन ऐसा होता है पर कोई भी नही सुधरता बस एक्सीडेंट बोल चूप्पी अपने कर्तव्य से विमुखता, सही समय कुछ प्रयत्नों से काफी जाने बचाई जा सकती है पर सभी भाग्य वाद और कानून की चपेट मे उलझे रहते हैं।
    बहुत प्रभाव शाली रचना।
    साधुवाद।
    शुभ संध्या।

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  3. सटीक और सार्थकता को दर्शाती रचना..
    जानता हूँ व्यस्त हैं सब,
    मर गयी है सम्वेदना..

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  4. उम्मीद का होना जरूरी है वर्ना तो साँसें पल भर में रुक जाएँ ... पर इंसानों में इंसान का मिलना मुश्किल जरूर है ...
    अच्छी रचना ...

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 24 नवम्बर 2017 को साझा की गई है..................http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    उत्तर
    1. मेरी रचना को चुनने के लिये सादर आभार श्वेता जी.

      हटाएं
  6. मरती हुवी संवेदनाओं पर,चोट करती हताशा ...,व्याकुल मन चाह कर भी कुछ नही कर पाने की बौखलाहट,एकला चलो की परिवारवादी सोच.लचर कानुन व्यवस्था ,मानव मन पर दिनो दिन बफॅ की मोटी परत डाल रही हे ..जहां संवेदनांए सुप्त होती जा रही है...बधाई
    ह्रदय क़ झकझोर देने वाली लेखनी के लिए..!!!

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  7. बेहद गम्भीर रचना। व्यक्तिगत अनुभव जुदा हो सकते हैं लेकिन मैं आदरणीय पुरुषोत्तम जी से सहमत हूँ कि संवेदना ज़िंदा है। लोग आते है ठहरते हैं इमदाद पहुंचाते हैं। तुरंत और देर से मुहैया होना आपकी ज़िंदगी और किस्मत पर मुनहसर है। मेरा स्वयं का सकारात्मक अनुभव है। लोगों के अंदर ईश्वरीय अंश है। लेकिन स्वयं के अंदर झाँकना आवश्यक है कि हमारे अंदर की सवेंदना कितनी जीवित है। वाह रचना

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  8. संवेदना का अभाव ही है यह .....आये दिन खबरों में सुनने को मिल ही रहा है। मदद करनी तो नहीं परन्तु वीडियो बनाकर अपलोड करना जरूर आता है .....
    इन्सानियत सच में गुम हो रही है....
    आपकी रचना बहुत ही चिन्तनीय है अगर यूँ ही दुर्घटनाओं में कोई स्वयं को रखकर देखे तो शायद इन्सानियत जगे....

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  9. कोई न कोई बचा ही लेगा
    ज़िंदा होगा इंसान किसी न किसी शरीर में जरूर...
    और अगर न बचाए कोइ मुझे;
    हे इश्वर! ये उम्मीद बचाए रखना
    कि ज़िंदा है इंसानियत इंसान के भीतर।--
    क्या बात है !!!!! बहुत ही मार्मिक वाणी अवरुद्ध करने वाली पंक्तियाँ हैं प्रिय अपर्णा | सचमुच संवेदनायें ज़िंदा रहती हैं तो मानवता का अस्तित्व बचा रहता है | क्या कहूँ आकस्मिक मौत से घिरे बेबस इन्सान के जरूर यही भाव होते होंगे | काश !! कोई इस अनसुनी आवाज को सुन कर किसी जाने वाले की सांसों की डोर थाम ले ताकि इंसानियत बची रहे | |

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  10. कोई न कोई बचा ही लेगा....इंसानियत अभी भी जिंदा हैं इसीलिए हजारों घटनाएं होती हैं कोई न कोई मदद के लिए आ ही जाता हैं फरिश्ता बन कर...बहुत ही मार्मिक रचना हैं

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