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अप्रैल, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दूर हूँ....कि पास हूँ

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मैं बार-बार मुस्कुरा उठता हूँ  तुम्हारे होंठो के बीच, बेवज़ह निकल जाता हूँ तुम्हारी आह में, जब भी उठाती हो कलम लिख जाता हूँ तुम्हारे हर हर्फ़ में, कहती हो दूर रहो मुझसे.... फ़िर क्यों आसमान में उकेरती हो मेरी तस्वीर? संभालती हो हमारे प्रेम की राख;  अपने ज्वेलरी बॉक्स में, दूर तो तुम भी नहीं हो ख़ुद से फ़िर मैं कैसे हो सकता हूँ? तुम्हारे तलवे के बीच वो जो काला तिल है न; मैं वंही हूँ, निकाल फेंको मुझे अपने वज़ूद से,  या यूँ ही पददलित करती रहो, उठाओगी जब भी कदम, तुम्हारे साथ -साथ चलूंगा, और तुम! धोते समय अपने पैर, मुस्कुराओगी कभी न कभी. #अपर्णा बाजपेई (Image credit to dretchstorm.com)

झूठे बाज़ार में औरत

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एक पूरा युग अपने भीतर जी रही है स्त्री, कहती है ख़ुद को नासमझ, उगाह नहीं पायी अब तक अपनी अस्मिता का मूल्य, मीडिया की बनाई छवि में घुट-घुट कर होंठ सी लेती है स्त्री, सड़कों पर कैंडल मार्च करती भीड़ में असली भेड़ियों को पहचान लेती है स्त्री  चुप है, कि उसके नाम पर  उगाहे जा रहे हैं प्रशस्ति पत्र, रुपयों की गठरियाँ सरकाई जा रही हैं गोदामों में, स्त्री विमर्श के नाम पर झूठ के पुलिंदों का अम्बार लग रहा है, लोग खुश हैं! कि रची जा रही है  स्त्री की नई तस्वीर, खोजती हूँ कि इस तस्वीर से  आम औरत ग़ायब है? (Image credit google)

एक कवि से उम्मीद!

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लिखो प्रेम कवितायेँ कि..... प्रेम ही बचा सकेगा तिल-तिल मरती मानवता को, प्रेम की अंगड़ाई जब घुट रही हो सरेआम, मौत के घाट उतार दिए जा रहे हों प्रेमी युगल, कल्पना करो प्रेम के राग में सड़ांध भरती सिक्कों की खनक को, प्रेम की दीवारों पर लचक रहे हैं खून के धब्बे, अपने आप में विलुप्त होता इंसान भूल रहा है; माँ की आँखों से बह रहा प्रेम, पत्नी की सिसकियों की लय हो रही बेज़ुबान, बरस रही हैं आसमान से  प्रेम के विरोध में फतवों की धमक, किताबों से मिटाया जा रहा है प्रेम का हर अक्षर, तब उम्मीद सिर्फ तुम्ही से है दोस्त! कि लिखो तुम प्रेम की अपूर्ण रह गयी कहानियां, अपनी कविताओं में प्रेम पर हो रहे अत्याचार की चिन्दियाँ करो, भरो प्रेम का राग हर कंठ में, तुम्हारी कविताओं में जिंदा रह गया प्रेम; बोयेगा बीज एक दिन, धरती पर प्रेम ही खेती लहलहायेगी, प्रेम के अवशेष  खड़े कर ही लेंगे  कभी न कभी मानवता की अटारियां, प्रेम को नया जीवन दो, लिखो प्रेम के आख्यान, करो रंगों, फूलों, तितलियों की बातें, विश्वास है मुझे ; बचा सकती हैं प्रेम कवितायें ही इस संसा

डरती हूँ मैं!

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जब भी,  फ़िर से,  काम पर जाने की इच्छा,  उठाती है सिर, ज़मीदोज़ कर देती हूँ उसे, आख़िर एक नन्ही सी बच्ची की माँ जो हूँ...... घर में,  मंदिर में,  अस्पताल में,  स्कूल में,  सड़क पर, बस में, ट्रेन में....  सब जगह हो सकता है बलात्कार! आठ महीना,  दो साल,  तीन साल, पांच साल, सात साल,  दस साल  किसी भी उम्र में हो सकता है बलात्कार! क्या करूँ, कंहा रखूँ उसे  जंहा वो रहे महफूज़ हर बुरी नज़र से... डरती हूँ कि.....  नन्ही सी बच्ची,  नहीं समझती  गलत हरकतें, समझ नहीं पाती गंदे इशारे, दौड़ जाती है  एक चॉकलेट के लालच में हर एक की गोद में, हर इंसान को समझती है अपना, नहीं जानती, इंसान की शक्ल में, दौड़ रहे हैं भेड़िए, कब किसे कंहा दबोच लें कोई पता नहीं. (Image credit google)

विदा का नृत्य

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मैं तुममें उतना ही देखता हूँ, जितना बची हो तुम मुझमें, किंवाड़ से लगकर भीतर झांकती तुम्हारी आँखें, निकाल ले जाती हैं मुझे पूरा का पूरा, जीवन भर, पुआल के ढेर पर सोता मैं, सुस्ताता हूँ थोड़ी देर, डनलप के गद्दों पर, नींद आजकल सो रही है  खेत के मेढ़ सी, न इधर न उधर, तराशता हूँ जब भी तुम्हारा बुत, ख़्वाब में भी फूट जाते हैं, तुम्हारी देह पर पड़े फ़फोले, अपनी बुतपरस्ती देख, रेशा-रेशा दहकता हूँ मैं, भागता हूँ ख़ुद से दूर, खो जाता हूँ किसी लोक धुन में, नाचता हूँ सुखाड़ के गीतों पर भी, अपने पैरों के जख़्मी होने तक, अनंत यात्रा पर निकलता हूँ, छोड़ जाता हूँ ये खलिहान, कि...फसलें उगाने के दिन बीत गए हैं। (Image credit google)

समय की उड़ान

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ढिबरी की रौशनी में पढ़ती हुई लड़की भरती है हौंसलों की उड़ान, अंतरिक्ष का चक्कर लगाती है चाँद तारों को समेट लाती है अपनी मुट्ठी में, जब जब आंसुओं के मोती देखती है माँ की आँखों में, खिलखिलाकर एक सूरज उगाती है उसके होंठों पर, माँ की बिवाइयों पर लगाती है अपनी परवाज़ का लेप, पिता की टोपी पर जड़वाती है अपनी क़ाबिलियत के हीरे, एक दिन ढिबरी की रौशनी में पढ़ती हुयी लड़की; लाती है बदलाव की बयार रौंद देती है ज़ुल्मो सितम की कहानियां..... फ़िर कोख से कब्र तक उसके होने पर जलाये जाते हैं खुशियों के चिराग उल्लास के गीतों में होता है उसका स्वागत ढिबरी की रौशनी में पढ़ती हुयी लड़की बन जाती है समय की उड़ान...... हमारे घरों में मुस्कुराती है, खुशियों के गहने सबके होठों पर सजाती है। (Image credit google)

पूर्ण विराम कंहा है!

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एक नृशंस कालखंड दर्ज हो रहा है इतिहास में             भीड़ की तानाशाही और रक्तिम व्यवहार ताकत का अमानवीय प्रदर्शन क़ानून की धज्जियाँ उड़ाता शाशन-प्रशासन.... हिंसा हथियार है और अविवेक मार्गदर्शक खौफ़नाक मंसूबे उड़ान भर रहे हैं ये हम किस युग में जी रहे हैं! किसका ज़्यादा खून बहा किसकी ज्यादा हुयी हार, कौन बैठा है कुर्सी पर कौन छील रहा घास, बर्बर है सोच.... मौत का बदला मौत! क्या मौत के बाद भी मरता है वक़्त? चुकती हैं रक्त पिपासु आदतें? पूर्ण विराम खोज रही हूँ जाने कंहा चला गया.... (Image credit google)