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मई, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक चिड़िया का घर

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एक चिड़िया उड़ती है बादलों के उस पार.. उसकी चूं-चूं सुन, जागता है सूरज, उसके पंखों से छन कर,  आती है ठंढी हवा,  गुनगुनाती है जब चिड़िया, आसमान तारों से भर जाता है, धरती से उठने वाली;  साजिशों की हुंकार सुन; चिड़िया जब-तब कराहती है, उसकी आँखों से बहती है आग, धरती पर बहता है लावा, रोती हुई चिड़िया को देख उफनते हैं ज्वालामुखी, सूख जाती हैं नदियां, मुरझा जाते हैं जंगल, आजकल चिड़िया चुप है! उदास हैं उसके पंख,  चिड़िया कैद है रिवाज़ों के पिटारे में ज़रा गौर से देखो संसार की हर स्त्री की आँखें! वह चिड़िया वंही रहती है.... (Image credit google)

ये सरकारी कार्यालय है!

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अजी ये भी कोई वक़्त है, दिन के बारह ही तो बजे हैं, अभी-अभी तो कार्यालय सजे हैं, साहब घर से निकल गए है, कार्यालय नहीं आये तो कंहा गए हैं, ज़रा चाय-पानी लाओ, गले को तर करवाओ, सरकारी कार्यालय है, भीड़ लगना आम है, इतनी भी क्या जल्दी है आराम से काम करना ही हेल्थी  है, दौड़ भाग में काम करवाओगे, मुझे भी मेडिकल लीव में भेजवाओगे, आराम से बैठो, आज नहीं तो कल काम हो ही जायेगा, सूरज कभी न कभी निकल ही आयेगा, सरकारी व्यवस्था में ऐसा ही होता है, नौ की जगह काम एक बजे शुरू होता है, सवाल करना बेकार है, हमारा ही आदमी है, हमारी ही व्यवस्था है, जो कोई देखे सुने वो गूंगा, बहरा अँधा है, मुंह पर चुप रहने की सिलिप लगाओ, व्यवस्था को कोसने से बाज आओ, जंहा जाओगे यही हाल मिलेगा कर्मचारी ग़ायब, शिकायतों का अंबार मिलेगा। (Image credit google)

नया इतिहास

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मेरी जेबों में तुम्हारा इतिहास पड़ा है कितना बेतरतीब था; तुम्हारा भूत..... वक्त की नब्ज़ पर हाँथ रख, पकड़ न पाया समाज का मर्ज़, मुगालते में ही रहा; कि... वक्त मेरी मुट्ठी में है, कानों में तेल डाल,  सुनता रहा, अपनी ही गौरव-गाथा! तब तक  झुका लिया मैंने, घड़ी की सुइयों को अपनी ओर, अब रचा जा रहा है नया इतिहास...... प्रेम के दस्तावेजों में नफ़रत नहीं अमन के गीत हैं सरहदों पर खून के धब्बे नहीं गुलाब की फसलें हैं,   शेष बहुत कुछ बचा है   इतिहास के पन्नों में जुड़ने को... जैसे नदी की कथा, हवा की व्यथा, खतों का दर्द, जुबां का फ़र्ज़,   शर्म का नकाब, गरीबों का असबाब, और भी बहुत कुछ बहुत कुछ बहुत कुछ...... तुम कुछ कहते नहीं!!!! इस इतिहास में तुम्हारी भी कथा होगी जो चाहो लिखना बस झूठे दंभ का आख्यान मत लिखना. (Image credit Pixabay.com)

माँ बनना.... न बनना

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लेबर रूम के बेड पर तड़पती हुई स्त्री  जब देती है जन्म एक और जीव को  तब वह मरकर एक बार फिर जन्म लेती है अपने ही तन में, अपने ही मन में, उसके अंतस में अचानक बहती है एक कोमल नदी जिसे वह समझती है धीरे धीरे; लेकिन दुनिया उस नदी की धार से  हरिया जाती है, माँ बनना आसान नहीं होता और माँ न बनना.... उससे भी ज्यादा कठिन, सवालों और तिरछी नज़रों के जख़्म  लेबरपेन से ज्यादा कष्टकारी होते है, कि दुनिया हर उस बात के लिए सवाल करती है जो आप नहीं होते... औरत के लिए माँ बनना न बनना उसकी च्वाइस है न कि उसकी शारीरिक बाध्यता. यदि न दे वो संतान को जन्म  स्त्री का ममत्व मर तो नहीं जाता  न ही सूख जाती है उसकी कोमल भावनाओं की अन्तःसलिला औरत जन्म से ही माँ होती है सिर्फ तन से नहीं मन से भी.. (Image credit Pixabay)

मैंने देखा है.... कई बार देखा है

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मैंने देखा है, कई बार देखा है, उम्र को छला जाते हुए, बुझते हुए चराग में रौशनी बढ़ते हुए, बूढ़ी आँखों में बचपन को उगते हुए मैंने देखा है... कई बार देखा है, मैंने देखा है  बूँद को बादल बनते हुए, गाते हुए लोरी बच्चे को माँ को नींद की राह ले जाते हुए, मैंने देखा है, कई बार देखा है... एक फूल पर झूमते भंवरे को; उदास हो दूसरी शाख़ पर मंडराते हुए, सूखते हुए अश्क़ों को गले में नमी बन घुलते हुए, मैंने देखा है कई बार देखा है.... शब्द को जीवन हुए कंठ को राग बन बरसते हुए, उँगलियों को थपकी बन कविता की शैया पर सोते हुये, मैंने देखा है..... कई बार देखा है जब जब देखती हूँ कुछ अनकही बातें लगता है जैसे  कुछ भी नहीं देखा है... कुछ भी नहीं देखा है ... (Image credit to Pinterest)

घूँट--घूँट प्यास

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( नोट- कविता में बेवा के घर को सिर्फ एक प्रतीक के तौर पर) पढ़ें।

इंतज़ार एक किताब का!

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उसने मुझे बड़ी हसरत से उठाया था, सहलाया था मेरा अक्स, स्नेह से देखा था ऊपर से नीचे तक,  आगे से पीछे तक, होंठों के पास ले जाकर हौले से चूम लिया था मुझे  और.... बेसाख्ता नज़रें घुमाई थीं चारों ओर कि...... किसी ने देखा तो नहीं!  मैं ख़ुश थी उन नर्म हथेलियों के बीच  कितनी उम्मीद से घर आयी थी उसके  कि.... अब रोज  उन शबनमी आंखों का दीदार होगा,   उन नाज़ुक उँगलियों से छुआ जाएगा मेरा रोम-रोम पर...... मैं बंद हूँ इन मुर्दा अलमारियों के बीच  मेरी खुशबू मर गयी है, ख़त्म हो रहे हैं मेरे चेहरे के रंग.... लाने वाली व्यस्त है घर की जिम्मेदारियों में.... बस  एक तड़प बाक़ी है, उसकी आँखों में मुझे छूने की,  वो काम की कैद में है  और मैं अलमारी की .... वो मुझे चाहती है,  और मैं उसे,  इन्तजार है,  उसे भी,  मुझे भी, एक दूसरे के साथ का! (Image credit google)

हिंदी कविता - दुनिया का सच

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मेरी कविता 'दुनिया का सच' सुनें मेरी आवाज़ में जो की सामाजिक बाज़ार में स्त्री की व्यथा से आपको रूबरू करवाती है। आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए अमूल्य हैं  कृपया अपनी प्रतिक्रियाएं अवश्य दें ताकि इस नयी राह पर आपके सुझावों का हाँथ पकड़ कर आगे बढ़ सकूं।