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जून, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कबीर

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उम्र का नृत्य

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उम्र चेहरे पर दिखाती है करतब, उठ -उठ जाता है झुर्रियों का घूंघट, बेहिसाब सपनों की लाश अब तैरती  है आँखों की सतह पर, कुछ झूठी उम्मीदें अब भी बैठी हैं, आंखों के नीचे फूले हुए गुब्बारों पर, याद आते हैं बचपन के दोस्त...  जो पंहुच पाए किसी ऊंचे ओहदे पर  कि... ऊपर आने के लिए बढ़ाया न हाँथ कभी, कुछ दोस्त अब भी हाँथ थाम लेते हैं गाहे-बगाहे जिनके हांथों में किस्मत की लकीरें न थी, वक्त - जरूरत कुछ चांदी से चमकते बाल खड़े हो जाते हैं हौंसला बन जब चौंक जाता है करीब में सोया बच्चा नींद में ही, पेट पर फिराता है हाँथ नन्हकू  और हलक में उड़ेल लेता है  एक लोटा पानी; बटलोई में यूं ही घुमाती है चमचा पत्नी और... पूछती है खाली आँखों से, कुछ और लोगे क्या!!!! उम्र की कहानी यूं चलती रहती है वो भरते रहते हैं हुंकार कि.... नींद न आ जाए वंहा जंहा किस्मत खड़ी हो किसी मोड़ पर। ©Aparna Bajpai (Image credit google)

आँचल में सीप

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तुम्हारी सीप सी आंखें और ये अश्क के मोती, बाख़बर हैं इश्क़ की रवायत से... तलब थी एक अनछुए पल की जानमाज बिछी; ख़ुदा से वास्ता बना तुम्हारी पलकों ने करवट ली दुआ में हाँथ उठा  बीज ने कुछ माँग लिया मेघ बरसे,  पत्तियों ने अंगड़ाई ली,  धरती ने हरी साड़ी पहन,  रेत से हाँथ मिलाया बाँध लिए सीप मोतियों समेत आँचल की गिरह में। #AparnaBajpai

मौत का सौदा

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हाशिये पर खड़े लोग,  प्रतीक्षारत हैं अपनी बारी की, उनकी आवाज़ में दम है, सही मंतव्य के साथ मांगते हैं अपना हक़, कर्ज के नाम पर बंट रही मौत को  लगाते हैं गले, अपनी ही ज़मीन पर रौंद दिये जाते हैं; कर्ज लेकर खरीदे गए ट्रैक्टर के नीचे, अपने ही खेत में उगाया गया गन्ना,  खींच लेता है ज़िंदगी का रस,  फसल और परती जमीन दोनों ही बनी हैं गले की फांस.... कि किसान के लिए नयी नयी योजनाएं ला रही है सरकार  मज़दूर को पलायन किसान को मौत की रेवड़ी स्त्री के लिए कन्यादान  .... सब वस्तुएं ही तो हैं, ठिकाने लगानी ही होंगी, सजाना है नया दरबार विकास अपरंपार  हाशिये के लोगों को केंद्र में लाना है, विकास की गंगा में गरीबों को बहाना है, एक आदमी की मौत की कीमत  तुम क्या जानो.... बस एक हाँथ रस्सी , एक चुटकी ज़हर  और...सरकार के खोखले वादे .... #AparnaBajpai (Image credit google)

आदमी होने का मतलब

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मैं एक आदमी हूँ  मौत से भागता हुआ  भरमाता हुआ ख़ुद को  कि मौत कुछ नहीं बिगाड़ पायेगी मेरा.... मैं एक कसाई हूँ, मौत का रोज़गार करता हुआ  ज़िंदा हूँ अपनी संवेदनाओं समेत कटे हुए जानवरों की अस्थियों में। मैं एक रंगरेज़ हूँ रंगता हूँ मौत के सफ़ेद रंग को  लाल पीले उत्सवी रंगों में मेरी दुनिया की दीवारें हैं झक्क सफ़ेद.... कि मैं सिमटा हूँ मात्र कपड़ों तक.. कहता है आदमी  कि मैं सिर्फ आदमी हूँ जबकि आदमी होने से पहले  वह आदमी बिलकुल नहीं था। पार कर रहा था वह  जनन की संधि गर्भ की सीमा  पालन का सुख  संस्कारों की संकीर्णता  भावुकता की घाटी  उल्लास की माटी, सब कुछ पार कर लेने के बावजूद  आदमी तलाशता है सुरक्षा कवच  कि अतीत को भूल भविष्य के डर में मुब्तिला है आदमी । (Image credit google)

देख कर भी जो नहीं देखा !

एक कविता.... कुछ अदेखा सा जो यूं ही गुज़र जाता है व्यस्त लम्हों के गुजरने के साथ और हम देखकर भी नहीं देख पाते , न उसका सौंदर्य , न उसकी पीड़ा, न ख़ामोशी , और न ही संवेग  सब कुछ किसी मशीन से निकलते उत्पाद की तरह होता जाता है और हमारा संवेदनशून्य होता मष्तिष्क कुछ भी ग्रहण नहीं कर पाता।

कहो कालिदास , सुनें मेरी आवाज़ में

विद्वता के बोझ तले दबे हर पुरुष को समर्पित यह कविता मेरी आवाज़ में सुनें... यह कविता आप इससे पूर्व वाली पोस्ट में पढ़ भी सकते हैं...

दहलीज़ पर कालिदास

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कहो कालिदास, आज दिन भर क्या किया, धूप में खड़े खड़े पीले तो नहीं पड़े, गंगा यमुना बहती रही स्वेद की और तुम.... उफ़ भी  नहीं करते , कहो कालिदास, कैसा लगा मालविका की नज़रों से विलग होकर, तुम लौट-लौट कर आते रहे उसी दहलीज़ पर मन में कौंधती रही दाड़िम दंतपंक्ति मुस्कुराहटें संभालते रहे प्रेम की पोटली में लौट नहीं पाते उसी द्वार खुद से वादा..... प्रेम से ज्यादा जरूरी है? कहो कालिदास, विद्वता की गरिमा ओढ़ थके तो नहीं, इससे तो अच्छा था कि बैठे रहते उसी डाल पर जिसे काट रहे थे, गिरते तो गिरते, मरते तो मरते, जो होना था हो जाता महानता का बोझ तो न ढोना पड़ता, अरे कालिदास! महानता की दहलीज़ के बाहर आओ, ज़रा मुस्कुराओ, कुछ बेवकूफियां करो कुछ नादानियाँ करो, बौद्धिकता का खोल उतारो हंसो खुल के जियो खुल के, अरे कालिदास! एक बार तो जी लो अपनी ज़िंदगी। (हर पुरुष के भीतर बैठे कालिदास को समर्पित) (Image credit Shutterstock)