बिनब्याही
बार- बार उलझ जाती हैं बुआ की नज़रें लाल-लाल चूनर में, पैंतालीस की उम्र में भी बुआ; झांकती हैं धीरे से झरोखा कि देख न ले कोई कुंआरी लड़की को झांकते हुए, दरवाजे पर आज भी नहीं खड़ी होती, चुपचाप हट जाती हैं पति या प्रसूति से जुड़ी बातों को सुन, आज भी लजाती हैं बुआ किसी बंशीवाले की धुन पर, छत के उस पार चुपचाप बैठी मिलती हैं कभी- कभी, हांथो की लकीरों में खोजती हैं ब्याह की रेखा, दादी अब भी रखवाती हैं सोमवार, गुरुवार के व्रत, बेटी की पेटी के लिए सहेजती हैं हर नया कपड़ा, बाबा हर साल बांधते हैं उम्मीद, इस साल ब्याह देंगे बेटी को जरूर, न बाबा का कर्ज उतरता है न आती है बरात, बीतते जाते हैं साल दर साल, बढ़ती जाती है उम्मीदों की मियाद, बुआ हर रात करवटें बदलती हैं, देखती हैं सपना लाल-लाल चूनर का, पति और ससुराल का, बच्चे और गृहस्थी का......... हे -हे -हे अब भी नासमझी करती हैं बुआ, जानती नहीं कितने मंहगे हैं दूल्हे इस बाज़ार में. (image credit google)