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नवंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बिनब्याही

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बार- बार उलझ जाती हैं बुआ की नज़रें  लाल-लाल चूनर में, पैंतालीस की उम्र में भी बुआ; झांकती हैं धीरे से झरोखा  कि देख न ले कोई कुंआरी लड़की को झांकते हुए, दरवाजे पर आज भी नहीं खड़ी होती, चुपचाप हट जाती हैं पति या प्रसूति से जुड़ी बातों को सुन, आज भी लजाती हैं बुआ किसी बंशीवाले की धुन पर,  छत के उस पार चुपचाप बैठी मिलती हैं कभी- कभी, हांथो की लकीरों में खोजती हैं ब्याह की रेखा, दादी अब भी रखवाती हैं सोमवार, गुरुवार के व्रत, बेटी की पेटी के लिए सहेजती हैं हर नया कपड़ा, बाबा हर साल बांधते हैं उम्मीद, इस साल ब्याह देंगे बेटी को जरूर, न बाबा का कर्ज उतरता है न आती है बरात, बीतते जाते हैं साल दर साल, बढ़ती जाती है उम्मीदों की मियाद,   बुआ हर रात करवटें बदलती हैं,  देखती हैं सपना लाल-लाल चूनर का,  पति और ससुराल का,  बच्चे और गृहस्थी का.........  हे -हे -हे  अब भी नासमझी करती हैं बुआ, जानती नहीं कितने मंहगे हैं दूल्हे इस बाज़ार में. (image credit google)

जूठी प्लेटो का इंतज़ार

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#चुनाव

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बड़ी बेपरवाह हो!

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वो आख़िरी चुम्बन तुम्हारा  और झटके से पलट जाना  भूलता क्यों नहीं? सरे बाज़ार उठ कर चली आती हो, पकडती हो हाँथ और खींच लेती हो मुझे मेरे समय से. अतीत हो जानता हूँ, छू नहीं सकता तुम्हें अब  सोचना भी पाप है .... पर तुम! बड़ी बेपरवाह हो,  खींच ले जाती हो अपने सहन में. सर्दी की सुबह, मेरे ही कप में सुड़कती हो चाय,  अपने गर्म हांथों में छुपाकर  मेरी बर्फ सी हन्थेलियाँ गायब हो जाती हो मेरे वजूद में. भागता हूँ जब भी हार कर मै, जीवन की प्यास से सराबोर कर देती हो.  मेरे आईने पर चिपकी हो इस तरह;  कि मुझमे भी तुम दिखती हो. खिलखिलाती हो मेरे डर पर  पसार बांहे थाम लेती हो मुझे मोहपाश में.  होना चाहता हूँ जितना भी दूर; उतना ही करीब आ जाती हो..... डराती हो ,धमकाती हो,  मेरे दिन पर छा जाती हो, सामने हो मेरे, बस एक कदम दूर  हर सांस मुझ में एकसार हो जाती हो. (Image credit google)   

मृत्यु से पहले की उम्मीद ( #Road Accident)

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दूर हूँ बहुत  उनसे ,तुमसे ,खुद से,  अपनी ही साँसे पता नहीं चल रहीं,  नहीं मालूम दिल धड़क भी रहा है या नहीं, जानता हूँ, ज़िंदा हूँ अभी  लहू- लुहान पड़ा हूँ आँखें बंद, होंठ खामोश  प्यास का लहलहाता समंदर  बस जीने की तड़प है बाकी है, न जाने कौन आयेगा सड़क के इस पार,  बचाएगा मुझे; या मुंह फेर चला जाएगा अपनी राह, जैसे मैं गुज़र जाता था सड़क पर पड़े घायलों को देख, जानता हूँ व्यस्त हैं सब,  मर गयी है सम्वेदना,  फिर भी है उम्मीद........  कोई न कोई बचा ही लेगा  ज़िंदा होगा इंसान किसी न किसी शरीर में जरूर... और अगर न बचाए कोइ मुझे; हे इश्वर!  ये उम्मीद बचाए रखना  कि ज़िंदा है इंसानियत इंसान के भीतर। (Image credit google)

प्रेम के हरे रहने तक!

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पलाश के लाल-लाल फूल  खिलते हैं जंगल में, मेरा सूरज उगता है  तुम्हारी आँखों में, मांग लेती हूँ धूप  थोड़ी सी तुमसे; न जाने कब, हमारे प्रेम का सूरज डूब जाए  मुरझा जाएँ पलाश  मरणासन्न हो जाये जंगल, कोशिश है खिले रहें पलाश , हरा रहे जंगल  बची रहे तुम्हारी धूप मेरी मुट्ठी में ताउम्र।    (image credit google)

लंच बाक्स से झांकता है समाजवाद

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बच्चों के लंच बाक्स से झांकता है समाजवाद, कि कुछ डिब्बों में रखी होती हैं करारी- कुप्पा तली हुयी पूरियां  और कंही,  चुपके से झांकती है तेल चुपड़ी तुड़ी-मुड़ी रोटी, कुछ बच्चे खाते हैं चटखारे लेकर-लेकर  बासी रोटी की कतरने, तो कुछ; देशी घी में पगे हलवे को भी देखकर लेते हैं    ऊब की उबासी, ये सिर्फ लंच बाक्स नहीं हैं ज़नाब! ये हैं उनकी बाप की कमाई का पारदर्शी नक़ाब, माँ की सुघड़ता का नमूना, और कुक की नौकरी कर रही माओं की मजबूरी लिखी स्लेट; जो दूसरों के टिफिन को लज़ीज़ पकवानों से सजाने से पहले,  जल्दी-जल्दी ढून्सती हैं अपने बच्चों के टिफिन में  रात के बचे चावलों को बिरयानी की शक्ल में; और करती हैं मनुहार, प्यार से खाली कर देना डब्बा; वरना मेरी आत्मगलानि मुझे जीने नहीं देगी। 

कविता के मायने

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कविता के सिरहने पड़ी हैं कितनी अबूझ पहेलियाँ,    मेरा- तुम्हारा प्रेम, हमारे सीले दिनों की यादें, दर्द सिर पर रखे भारी समझौतों वाले दिन; और कविता के पैताने! वो हाँथ जोड़ कर बैठना, कि एक दिन लौट आयेंगे हमारे भी दिन, टपकना बंद हो जाएगा बरसात का पानी  बच्चे के सिर पर, मेघ करेंगे धरती से प्रेमालाप,  हरियाली चादर ओढ़; धरा करेगी स्वागत हमारी उम्मीदों का, खाली पड़ी बखार भर जायेगी अनाज से,  हम खरीदेंगे अपने सपने अनाज के बदले,  निखर जायेगी हमारी भी ज़िंदगी; हम बैठे ही रहे कविता के सिरहने - पैताने, और कविता! अट्टालिकाओं की हो गयी........  हम गूंथते ही रहे अक्षर- अक्षर खाली स्लेटों पर और कविता! चिढ़ा गयी हमें हमारी खुरदुरी हथेलियां देख, कविता कैद हो गयी महलों में, तिजोरियों में, और हम! बाट जोहते रहे अपनी झोपड़ी के बाहर।। (picture credit google)

स्टेशन पर बाल दिवस (लघुकथा)

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कल छुट्टी मिलेगी साहब , राजू ने सकुचाते हुए पूछा। कैसी छुट्टी? "परसो ही तो आया है तू काम पर वापस और फिर छुट्टी माँगने लगा.अब क्या काम आ गया". सेठ फूलचंद ने रुपए गिनते हुए कहा. राजू कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा फिर बोला।अच्छा साहब आधा दिन की छुट्टी दे दीजियेगा, मै रात में सारा काम निपटा दूंगा" राजू ने आवाज में थोड़ी हिम्मत भरकर कहा. सेठ फूलचंद ने इस बार राजू को  गौर से देखा और बोले ," देखो राजू तुम मुझे सच सच बताओ तुम्हे छुट्टी किस लिए चाहिए। हो सकता है मै तुम्हे पूरे दिन की छुट्टी दे दूँ." सेठ फूलचंद इस बार थोड़े प्यार से बोले। साहब कल मेरे सारे दोस्त चाचा नेहरू का जन्मदिन मनाना चाहते हैं. मेरे सब दोस्त कल काम से छुट्टी लेकर एक साथ इकट्ठे होंगे। फिर हम उत्सव शुरू करेंगे। सेठ फूलचंद को थोड़ा अजीब लगा. ये मलिन बस्ती में रहने वाले बच्चे जो स्कूल जाते नहीं हैं बाल दिवस क्यों और कैसे मनाएंगे? सेठ जी बोले ," राजू तुम तो स्कूल जाते नहीं हो , फिर चाचा नेहरू का जन्म दिन कैसे मनाओगे। जानते भी हो नेहरू जी कौन थे?  राजू हंसने लगा. क्या साहब, आपको इतना भी नहीं पता. हम

सरकारी दस्तावेज़ों में थर्ड जेंडर हूँ!

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न औरत हूँ न मर्द हूँ  अपने जन्मदाता का अनवरत दर्द हूँ.  सुन्दर नहीं हूँ , असुंदर भी नहीं  हुस्न और इश्क का सिकंदर भी नहीं। मखौल हूँ समाज का, हंसी का लिबास हूँ, गलत ही सही ईश्वर का हिसाब हूँ. जान मुझमें भी है, संवेदना भी  जन्म भले न दूं, पालक लाज़वाब हूँ. हंसते हो , खिलखिलाते हो,मजाक बनाते हो, तुम्हारी नीचता का क़रारा जवाब हूँ. तुम्हारे जन्म पर तालियाँ बजाता हूँ, अपने होने की कीमत मांग जाता हूँ, मर्द का जिगर हूँ , औरत की ममता हूँ  पके हुए ज़ख्म सा हर पल रिसता हूँ देहरी और दालान के बीच में अटका हूँ  पाच उँगलियों के साथ छठी उंगली सा लटका हूँ. चंद सिक्के फेंक कर पीछा छुड़ाते हो, क्यों नहीं मेरा दर्द थोड़ा सा बाँट जाते हो. मुझमें भी साँसे हैं, मेरे भी सपने हैं, पराये ही सही कुछ मेरे भी अपने हैं, प्यार की झप्पी पर मेरा भी हक़ है, इज्जत की रोटी मुझे भी पसंद है.  नागरिक किताबों में बोया हुआ अक्षर हूँ, पूरे लिखे पत्र का जरूरी हस्ताक्षर हूँ. नर और नारायण के बीच का बवंडर हूँ  सरकारी दस्तावेज़ों में थर्ड जेंडर हूँ.

रंगमंच पर टंगे चेहरे (लघुकथा )

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1. रौशनी से नहाये हुए मंच पर परियां खिलखिलाती हैं, झूमती हैं, मस्तानी अदाएं दिखाती है. सीटी बजाते हैं लड़के, पीछा करते है, छेड़ते हैं, आहें भरते हैं रंगीन गुब्बारों को हवा में उड़ाकर; प्रेम का इज़हार करते हैं. २. हाँथ में कटोरा लिए वृद्ध कांपता है, ठिठुरता है, पेट पकड़कर बैठ जाता है कूड़ेदान के सहारे. तभी बड़ी सी कार से एक जोड़ा निकलता है हांथों में हाँथ डाले और ......स्नैक्स का खाली पैकेट  वृद्ध के  चहरे पर फेंकता हुआ निकल जाता है अपनी दुनिया में...... 3. दुधमुहे बच्चे को पेड़ के नीचे लिटाकर होंठो पर लिपस्टिक पोतती है वैश्या, सड़क के किनारे खड़े होकर अश्लील इशारे करती है, पटाती है ग्राहक, खरीदती है दूध का पैकेट  और गुम हो जाती है बस्ती की ओर जाती हुई पगडंडी पर.....  4. मंच पर अपने संवाद बोलते- बोलते  अचानक रुक जाता है कार्तिक. इधर –उधर देखता है और फिर अपने संवाद बोलने लगता है. पर्दे के पीछे खलबली मच जाती है. अचानक मंच पर अँधेरा हो जाता है और कार्तिक के चेहरे पर सीधे रोशनी पड़ती है. दर्शक अब सिर्फ कार्तिक का चेहरा देखते हैं, कुछ बुझा सा,कुछ उदास. कार्तिक अपने वस्त्र

मर्द हूँ, अभिशप्त हूँ

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मर्द हूँ,   अभिशप्त हूँ,   जीवन   के दुखों से   बेहद संतप्त हूँ।   बोल नहीं सकता   कह नहीं सकता   सबके सामने   मै रो नहीं सकता . भरी भीड़ में रेंगता है हाँथ कोई   मेरी पीठ पर ; और मैं कुछ नहीं बोलता , कह नहीं सकता कुछ ;   भले ही बॉस की पत्नी   चिकोटी काट ले मेरे गालों पर सरेआम .  मै चुप रहता हूँ ; जब मेरी   मां   ताना देती है मुझे   अपने ही बच्चे का डायपर बदलने पर.... रात भर बच्चे के साथ जगती पत्नी   कोसती है मुझे   और मै कुछ नहीं करता ;  आज तक नहीं सीख पाया   नन्हे शिशु को गोद में लेना ,  कान में गूंजती है माँ की हिदायत   गिरा मत देना बच्चे को ; और मै !  सहम कर छुप जाता हूँ   चादर के भीतर ;  भले ही तड़पता रहूँ पत्नी और बच्चे के दर्द पर . सोशल मीडिया के पन्ने   भरे हैं औरत के दर्द से ; और मै     चुपचाप कोने में खड़ा हूँ.   दिन भर खटता हूँ रोजी कमाने को   फिर भी ; सामाजिक भाषा में   मै बेवड़ा हूँ. मालिक हूँ , देवता हूँ , पिता हूँ   , बेटा हूँ , हर रिश्ते में बार-बार पिसा हूँ.   मर्द हूँ , अभिशप्त   हूँ  

लघुकथा - अफ़वाह के हाँथ

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लघुकथा - अफ़वाह के हाँथ क्या खाला, बस इतनी सी सब्जी, थोड़ी और दो न! रेहाना मिन्नत करती हुई बोली. " न और नहीं, दोपहर को भी खाना है, तुम्हारे खालू अभी दूकान से आकर खायेंगे.आज कुछ और सब्जी भी नहीं है,गैस भी ख़त्म होने वाली है.सिलेंडर दो दिन बाद ही मिलेगा. कुछ और नहीं बना सकती " , खाला उसे समझाते हुए बोली. अच्छा खाला, मै खालू के साथ फिर खालूंगी, रेहाना उठ कर अपनी किताबें संभालने लगी. खाला जूठे बर्तन उठाकर रख रही थी तभी बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा. रेहाना और खाला दोनो दौड़ कर बाहर आयी. तब तक कुछ लोग घर के अन्दर आ गए और उनका सामान उठा कर फेकने लगे.रेहाना रोने लगी. खाला कुछ समझती तब तक उनके घर में उन लोगों ने आग लगा थी. आसपास पास पूरा गाँव उमड़ कर आ गया था .घर जल कर राख हो चुका था. खाला का रो-रो कर बुरा हाल था.वसीम मियाँ की लाश घर के बाहर रखी थी. उन्हें लोगों ने भरे चौराहे पर पीट-पीट कर मार दिया था. पुलिस आकर भी उन्हें नहीं बचा पायी थी. उम्नादी भीड़ ने अपनी मनमाने की थी. कल किसी ने व्हाट्सएपर अफवाह फैलाई थी कि वसीम मियाँ अपनी दुकान पर गाय का मांस बेचते हैं. रामेश्वर जोर जोर से