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दिसंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नया साल

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कब्ज़ा (लघु कथा )

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रफ़ीक मियाँ कोर्ट के बाहर बुरी तरह से चीख रहे थे और अपने कपड़े नोच रहे थे.भीड़ आस पास तमाशा देखरही थी. कोइ बोला,”सत्तर बरस का बूढ़ा रोड पर नंगा होकर क्या कर लेगा...... फिर भी चिल्लाने दीजिये शायद हमारे देश की न्याय व्यवस्था को शर्म आ जाए! पूरी ज़िंदगी गुजार दी रफीक मियाँ ने सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाते लेकिन टस से मस न हुआ था उनकी जमीन पर अवैध कब्जा करने वाला संग्राम सिंह. रफीक के बाबा ने कितनी हसरत से शहर में जमीन खरीदी थी कि उनके बाल -बच्चों को किराए के मकान में होने वाली किच-किच से न जूझना पड़े. जमीन खरीदने में ही बूँद-बूँद जमा की गयी बचत खर्च हो गयी थी. बेचारे जमीन पर बाउंड्री भी न पाए थे और अल्लाह को प्यारे हो गए थे. रफीक के अब्बाजान सऊदी चले गए थे जब वो अपनी अम्मी के गर्भ में ही था. वंहा वे किसी फैक्ट्री में जाने क्या काम करते थे कि जब भी फोन पर बात करते तो कहते कि घर वापस आने के लिए पैसे जमा कर रहे हैं. पर न पैसे जमा हो पाए और न वो घर आये. एक दिन पड़ोस के बब्बन  चचा ने खबर दी कि उनकी रोड एक्सीडेंट में मौत हो गयी है. अम्मी ने उन्हें वहीं सुपुर्दे खाक करने की इजाज़त दे दी. अब उ

प्रेम का ताजमहल

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इस अरगनी पर  टंगी हैं तुम्हारी यादें …. हमारा प्रेम! न जाने कंहा निचुड़ गया, बसा है अब भी तुम्हारी साँसों का सोंधापन दीवारों पर तुम्हारे हांथों की छाप ज़िंदा है, हमारे प्रेम के अवशेष बिखरे हैं चंहु ओर...... कि.... ये कमरा हमारे प्रेम का ताजमहल है.

नए साल में खुशियों का चश्मा

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नया साल टकटकी लगाए झाँक रहा है कैलेण्डर से, जानता है महीने वही होंगे दिन भी.... बस उबासियों की हालत सुधर जायेगी. अम्मा का टूटा चश्मा शायद बदल जाए, बाबा की छड़ी की मूठ हो सकता है बना दी जाए नयी, गुड्डू को दिया जाय ताज़ा खाना शायद. अगले बरस, शायद कनस्तर में आंटा थोड़ा ज्यादा हो जाय. भूखे का पेट भर दिया जाय पूरा, पापा को चंद मिनट मिल जाएँ ज्यादा... अपने बच्चे की किलकारियां सुनने करने के लिए, नए साल में, सरहद पर खून के छींटे शायद कम गिरे, छोड़ दिए जांय बेक़सूर कैदी, सरकारी कार्यालयों में धूल फांकती फाइलें ले ही आयें घरों में उजास, न्याय की राह देखता मंगलू शायद पा ही जाए अपना हक़ .... नया बरस शायद खोज ही लाये सबकी खुशियों की चाभी! उम्मीद के बादल बरस रहे हैं मूसलाधार...... नए वर्ष में हवाओं का रुख बदल जाएगा या बदल जायेगा हमारा नज़रिया ही. (Picture credit google)

तन के उस पार ( लघु कथा)

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वो रात बहुत चमकीली थी जब नदी के किनारे तुमने धीरे से मेरा हाँथ छुआ था और मुझे   अपने साथ होने का एहसास दिलाया था. मै भटक रही थी अकेली .... वंहा कोइ नहीं था जो मेरे साथ होता. मेरा हाँथ थामता, मुझे गले से लगाता, बस मै तड़प रही थी उस भयानक अकेलेपन में. नदी की धार मेरी ज़िंदगी को अपने साथ ले जा रही थी, हवाएं मुझे बेचैन करती थी, पानी की कलकल मेरे ज़ख्मों पर नमक छिड़कती थी. मुझे शांति चाहिए थे, लोगो के बीच वाली, अकेलापन चाहिए था शोर-शराबे वाला. कोइ नहीं था जो मेरे साथ होता.नदी पार करने वाले मुसाफ़िर आते और चले जाते, ठहरता कोइ नहीं. उस रात जब तुम आये, लगा जैसे कितने जन्मों से मै तुम्हारे ही इंतज़ार में थी. मेरे पड़ोस में ही तुम्हे सुलाया गया था और तुम सोते हुए कितने अच्छे लग रहे थे. बिलकुल शांत. न कोइ दर्द , न पछतावा. न कुछ छूट जाने का दुःख न असमय यंहा आने की बेचैनी. कुछ भी नहीं था तुम्हारे चहरे पर. विषाद की एक रेखा तक नहीं. सब तुम्हे सुलाकर चले गए थे. तुम्हारे अपने तुम्हे छोड़ गए थे बिना तुम्हारी अनुमति लिए. तुम सो रहे थे और मै तम्हारे आस पास घूम रही थी, ताकि तुम्हे अकेलापन न लगे. औरफिर...

आओ हम थोड़ा सा प्रेम करें

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आओ हम थोड़ा सा प्रेम करें महसूसें एक दूसरे के ख़यालात , एहसासों की तितलियों को मडराने दें फूलों पर , कुछ जुगुनू समेट लें अपनी मुट्ठियों में और ...... रौशन कर दें एक दूसरे के अँधेरे गर्त , आओ बाँट लें थोड़ा-थोड़ा कम्बल , एक दूसरे के हांथों का तकिया बना बुलाएं दूर खड़ी नींद , ठिठुरती रात में एक दूसरे के निवालों से दें रिश्तों को गर्माहट . आओ हम थोड़ा सा प्रेम करें बाँट लें आसमान आधा-आधा खिलखिलाएं एक दूसरे के कन्धों पर बेलौस , आओ हम सहेज लें अपने आप को एक दूसरे में.... भूख , प्यास , दर्द , बेबसी , लाचारी को परे धकेल कारवां बनाएं अपने प्रेम का...... आओ हम थोड़ा सा प्रेम करे इससे , उससे , खुद से कि.... प्रेम ही दे सकता है उम्मीद इस सृष्टि के बचे रहने की. (Picture credit google)

कटे हुए हाँथ

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कटे हुए हाँथ  मचलने लगते हैं कभी -कभी  सच को साबित करने के लिए. उतावले होकर कोशिश करते हैं  कानून का गला पकड़ने की. बार बार चीखते हैं, करते हैं नाद भरी सभा में, फिर भी झूठ का अट्टहास  बंद कर  देता है उनका मुंह, खुद से रिसते हुए लहू को  साक्ष्य  के तौर पर पेश करने के बावजूद  ज़िंदा नहीं माना जाता उन्हें, कटे हुए हांथ थाम लेते हैं मशाल; कभी - कभी हथियार भी,  अपनी बात कहने के लिए  हवा में भरते हैं उड़ान  चिढ़ाते हैं जुड़े हुए हांथों को  कि उनके पास  लालच की चूड़ियाँ नहीं होती। (Picture credit google)

ढाई आखर

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#चाय #CHAI

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मरे हुए लोग

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मरे हुए लोग मरते हैं रोज-रोज थोड़ा- थोड़ा, अपनी निकलती साँसों के साथ मर जाता है उनका उत्साह, हंसते नहीं है कभी न ही बोलते है, अपनी धड़कनों के साथ बजता है उनका शरीर जैसे पुराने खंडहरों में तड़पती हो कोइ आत्मा. मरे हुए लोग, जल्दी में रहते हैं हमेशा, चलते रहते हैं पूरी ज़िंदगी पर कंही नहीं पंहुचते. मरे हुए लोगों की अंत्येष्टि नहीं होती, मुक्त नहीं होती उनकी रूह मर जाती है शरीर के साथ. ये मरे हुए लोग, श्मशान नहीं ले जाए जाते, बस! दफ़ना दिए जाते हैं अपने ही घरों  में. (picture credit google)

तहज़ीब

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पीठ या चेहरा.....

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सोचती हूँ....  कितनी भद्दी हो गयी होगी मेरी  पीठ तुम्हारी पिटाई से, लगातार रिसते ख़ून के धब्बे, नीलशाह, अनगिनत ज़ख्म........... फिर सोचती हूँ.... तुम्हारे चहरे से ज्यादा भद्दी तो न होगी कितना कुरूप लगता था तुम्हारा चेहरा ; मुझे पीटते वक्त, पीठ तो पीठ है और चेहरा है :  मन का दर्पण  कुरूप कौन?  (image source google)

' ए फॉर एप्पल' नहीं 'ए फॉर अनन्या'

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सीकचों से झांकती हुई नन्ही परी  इशारा करती है बुलाती है मुझे  बुदबुदाती है धीरे से मेरे कान में  मुझे भी आता है 'ए फॉर एप्पल ' नम्बर्स भी; पूरे हंड्रेड तक! एक बड़ी सी मुस्कराहट के साथ  सरगोशी करती है, एक बुक भी है मेरे पास; बड़े- बड़े चित्रों वाली  रंगीन! रद्दी से चुन कर लाये थे पापा और एक पेन भी, चमकते हुए नीले रंग का.....  मझे पढ़ना भी आता है  और बोलना भी, बस स्कूल नहीं जाती चल नहीं सकती न........ तो क्या हुआ! एक दिन मै भी किताबें लिखूँगी, बताऊंगी सबको, 'ए फॉर अनन्या' भी होता है  और 'अ से अनन्या' भी....  फिर हर किताब में  एप्पल और अनार की जगह  मेरी फोटो छपेगी मेरा नाम 'अनन्या' है न! (Picture credit google)

इंसानों के बीच एक दिन

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गलियों में घूमते हुए  बरबस ही खींचती है गरम - गरम भात की महक, दरवाजा खुला ही रहता है हमेशा  यहाँ बंद नहीं होते कपाट  चोर आकर क्या ले जायेंगे. जिस घर  चाहूं घुस जाऊं  तुरत परोसी जायेगी थाली  माड़ - भात, प्याज, मिर्च के साथ  हो सकता है रख दे हाँथ पर गुड़ कोइ  और झट से भाग जाए झोपडी के उस पार. यंहा भूखे को प्यार परोसा जाता है भर- भर मुट्ठी उड़ेला जाता है आशीर्वाद. फसल काटने के बाद  नाचते है लोग  घूमते हैं मेला  प्रेमी युगल आज़ादी  से चुनते हैं अपना हमसफ़र  दीवारें नहीं होती यंहा  मज़हब और जाति की  जब तक घर में धान है  हर घर है अमीर  धान ख़तम, अमीरी ख़तम  फिर वही फ़ाकामस्ती वही दर्द , वही दवा  इनकी ज़िंदगी खदबदाती है खौलते पानी में, पानी ठंढा हुआ जीवन आसान  पानी के तापमान के साथ  घटता- बढ़ता है सुख-दुःख  पानी जैसे ही बहता है जीवन  पानी जैसा मन  जिस बर्तन डालो  उस जैसा तन. (Image credit google)

मेरी पाज़ेब

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कीमती है!

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अन्न धन है  अन्न मन है  अन्न से  जीवन सुगम है  अन्न थाली  अन्न बाली  अन्न बिन धरती है खाली  अन्न धर्म  है  अन्न मर्म है  अन्न ही सबका कर्म है   अन्न संस्कार है  अन्न बाज़ार है  अन्न ही सबका त्यौहार है  एक-एक दाने की कीमत  खुदकुशी और मौत है  भूख और बाज़ार  धर्म और संस्कार में  झोपड़ी और गोदाम में  अन्न खुशी का आधार है।   (Picture credit to Malay Ranjan Pradhan's FB wall)

बाकी है अब भी!

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जब- जब तुम्हे मिलने निकलती हूँ बादलों के मेलें में गुम हो जाती हूँ तुम, चाँद बन इठलाते हो, खेलते हो छुपंछुपाई हवा के झूलों पर उड़ती हूँ दौड़ती हूँ तुम्हे छूने को  हज़ार कोशिशें करती हूँ  और तुम! भागते हो मुझसे दूर अमावस की चादर तले छुपते हो  निहारते हो चोरी- चोरी मेरे एहसास में गुम हो तुम भी  फिर; ये कैसा खेल? बाकी है अब भी  प्रेम का प्रकटीकरण।।।।   (picture- google)

टहनियों की पंहुच

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उसके साथ आलिंगनबद्ध होने पर भी, खींच ही लाती हैं मेरी टहनियां तुम्हे और वो तकती है मेरी राह कि कब पंहुचेगे मेरे हाथ उसके तने तक जानती नहीं परजीवी हूँ  जीती हूं तुम्हारा ही रस पीकर तुम्ही से है मेराअस्तित्व और वो! धरा है तुम्हारा आधार छोड़ नहीं सकते उसे और मुझे भी तुम उससे जीते हो और मै तुमसे. (image credit google)     

नाक और इशारे

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इशारे कर सकता है कोइ भी, विद्यालय का प्रधानाचार्य, आफिस में बॉस बाप की उम्र का पड़ोसी साथ बैठ कर काम करने वाला कलीग कभी कभी रिक्शेवाला भी. इशारे करना अफोर्ड कर सकता है हर मर्द गरीब-अमीर, मालिक -नौकर, आफीसर- मजदूर नपुंसक भी........ क्योंकि इशारों के बीच नाक नहीं आती!!!! नाक! हाँ नाक इशारे करने में नाक नहीं कटती...... साक्ष्य नहीं होता कोई भुक्तभोगी के पास, भद्दे इशारे करने के बाद भी; आप दिख सकते है सभ्य चल सकते हैं सीना तान, खुद पर पर्दा डाल लानत-मलामत कर सकते हैं अपने जैसों की. नाक कटती है उसकी जो करता है विरोध, जीने नहीं देता समाज मुंहजोर है, बढ़ाती है बात यही संस्कार दिए हैं माँ-बाप ने माँ-बाप की भी कट जाती है नाक न जाने बेटियों की कुर्बानी कब तक लेती रहेगी नाक! और; अश्लील हरकतें, भद्दे इशारे करने वाले नुमाइश करते फिरेंगे अपनी सही-सलामत नाक की.   (Image credit google)