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अक्तूबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
भूख का इंकलाब!
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जब तुम दलीलें दे रहे थे भूख से नहीं मर रहे बच्चे, रिक्शा चालाक और मजदूर, तब सड़क पर खड़े एक भिखमंगे ने फेंक दिया था खोलकर अपने शरीर पर बचा एक मात्र अधोवस्त्र, खड़ा हो गया था नंगा शासन के ख़िलाफ़! कि नंगे का सामना नंगा ही कर सकता है, भूख भूखे को ही जिबह करती है, लील लेती है बेरोजगारी मासूम युवा को फंदे की शक्ल में. भूख से आदमी नहीं मरता; मरती हैं अंतड़ियां, सूख जाता है रक्त गायब हो जाता है शरीर का पानी, तब मौत का कारण कुछ और दर्ज किया जाता है, 'भूख' बिलकुल नहीं। तुम सच कहते हो मंत्री महोदय! आज तक एक भी मौत भूख से नहीं हुई, मौतें हुयी हैं तुम्हारे नंगेपन से, जब मर गया तुम्हारा ज़मीर, अंधी व्यवस्था ने निगल ली ईमानदारी, आदमी भेड़-बकरियों की तरह खड़ा हो गया लाइन लगाकर, बच्चों ने जान दे दी तुम्हारी वफादारी देखकर, मशालें जल गयीं इंकलाब की, जी हां, ये भूख का इंकलाब है!! (Image credit google)
पत्थर होना भी आसान नहीं होता. #Rock
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तमाम बहस मुबाहिसों को भुलाकर हम पत्त्थर हुए थे , सोचा था उगने न देंगे एक भी भाव कमजोरी का , एक भी पल याद न करेंगे अपना जख्म, , अगर उगने लगेगी घास मुझ पर ; नमी नहीं सोकने देंगे उसे . न ही पड़ने देंगे परछाई फूलों की , मिट्टी की परत जब जब जमेंगी बारिश को बुला तहस – नहस करा देंगे उसका अस्तित्व ........ पर पत्थर बनना आसान न था! बची रह ही गयी थी नमी कंही और शायद मिट्टी भी ........ उड़ आए बीज कंही से; कि लाख कोशिशों के बावजूद उग ही आये कुछ अंकुर बातें करने लगे हवा से नाता जोड़ लिया इस धरा से , गगन से और इंसानों से ....... और हम ! अपनी कोशिशों में भी हारते रहे..... कि पत्थर होना भी आसान नहीं होता. . ( image credit google)
मंहगाई में त्यौहार
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चीनी मंहगी, गुड़ भी मंहगी मंहगा दूध मिठाई है, खील बताशे मंहगे हो गए क्योँ दीवाली आयी है? एक नहीं, दो नहीं, दस नहीं खुशियों से है भरा बाज़ार, कुछ लोगों की जेबें भरता जाल बिछा है अपरम्पार. खाली चूल्हा, जेबें खाली अपने हिस्से आया शून्य, सब चीजों का दाम बढ़ गया मानव का बस घट गया मूल्य. रेल टिकट का दाम बढ़ गया भैया कैसे आऊँ मै? रोली अक्षत मंहगे हो गए कैसे प्यार लुटाऊँ मै? लिखती हूँ कुछ शब्द नेह के यही हमारा हैं त्यौहार, कुछ पढ़ना कुछ जी लेना तुम इन्हें समझ लेना उपहार. (Image credit google)
मांग का मौसम
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प्रेम की मूसलाधार बारिश से , हर बार बचा ले जाती है खुद को , वो तन्हा है....... . है प्रेम की पीड़ा से सराबोर , नहीं बचा है एक भी अंग इस दर्द से आज़ाद. जब-जब बहारों का मौसम आता है , वो ज़र्द पत्ते तलाशती है खुद के भीतर , हरियाले सावन में अपना पीला चेहरा... छुपा ले जाती है बादलों की ओट , कहीं बरस न पड़े..... उसके अंतस का भादौं ; पलकों की कोर से. जिया था उसने भी कभी..... हर मौसम भरपूर. मांग में ; पतझड़ का बसेरा हुआ जब से , सूख गयी है वो.... जेठ के दोपहर सी ; कि अब , बस एक ही मौसम बचा है उसके आस-पास वैधव्य का......
खान मजदूरों का शोकगीत
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भारत में झरिया को कोयले की सबसे बड़ी खान के रूप में जाना जाता है जो की ईंधन का एक बड़ा श्रोत है। ये देश में ऊर्जा के क्षेत्र से होने वाले आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परन्तु वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार इस खान में लगभग ७० से अधिक् स्थानों पर आग लगी है जो १०० वर्गमील से भी अधिक क्षेत्र को कवर करती है। ये आग कभी - कभी धरती का सीना फाड़ कर बाहर निकल आती है और मासूम ज़िंदगियाँ मिनटों में मौत के हवाले हो जाती हैं। सरकार , प्रशाशन और उस क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियां उस पूरे क्षेत्र में रहने वाले लोगों को वंहा से विस्थापित कर उनके पुनर्वास की योजनाओं पर काम कर रही है। कुछ लोग जा चुके हैं कुछ नहीं जाना चाहते। खान मजदूर आग के बीच काम करते है , जलते हैं , मरते हैं। सुरक्षा साधनों के बावजूद वे हर क्षण मौत से दो -दो हाँथ करते है। खान मजदूरों के साथ बातचीत के बाद लिखी गयी एक कविता ......... कोयला खदानों में काम करते मजदूर, गाते हैं शोकगीत, कि टपक पड़ती है उनके माथे से प्रतिकूल परिस्थितियों की पीड़ा, उनके फेफड़ों में भरी कार्बन डाई आक्साइड सड़ा देती है उनका स्व
"ग्राहक" लघुकथा
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रांची से जमशेदपुर आने में यही कोई दो- ढाई घंटे लगते थे हमेशा। सोचा था १०- ११ बजे रात तक घर पंहुच जाऊंगा। उस दिन जैसे ही चांडिल पार किया ट्रकों की लम्बी लाइन लगी थी रोड पर। लोगों से पूछा तो पता चला आगे २ किलोमीटर तक ऐसे ही जाम है। किसी भी सूरत में आगे जाना नामुमकिन है। मन में बड़ी कोफ़्त हो रही थी। घर पंहुच कर भी नहीं पंहुचा था। घर पर फोन कर के सूचना दी कि चांडिल में फंसा हूँ। जाम कम होते ही निकलने की कोशिश करूंगा। घर पर खाने के लिए मेरा इन्तजार न करें। बहुत भूख लग रही थी। गाड़ी में बैठे- बैठे ही इधर - उधर नज़र दौड़ाई कंही कोई रेस्टोरेंट या कोई ढाबा ही नज़र आये. जंहा कुछ खाने के लिए मिल जाता। दूर एक ढाबा सा दिखाई दिया। अब गाड़ी छोड़कर कैसे जाऊं। सोचा कोई दिख जाता तो उसी से कुछ मांगा लेता। गाड़ी से बाहर निकल इधर - उधर देख रहा था। तभी ६-७ साल का एक लड़का मेरे पास आया. पतला - दुबला , थोड़ा सांवला सा। कान तक बढे हुए बाल। आंखों में अजीब सी निरीहता। मेरे पास आकर बोला , " साहब आपके पास पैसे हैं" ? मैंने कहा हाँ , क्योँ ? उसके चहरे पर खुशी तैर गयी. "साहब मुझे बहुत
अगले साल फिर दो अक्टूबर आने वाला है!
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आज मोचीराम ने जूतों पर पोलिश नहीं की, चेहरे पर पोलिश लगाए घूम रहे हैं, हंस रहे हैं.... हे हे हे हो हो हो ..... जूतों को क्या चमकाना! जब चेहरों की चमक गायब है, फटे जूतों को सिलकर क्या होगा: उतने में नए खरीद लो चाइना माल है न; एक का दस, एक का दस ....... हम! अरे हम तो कामगार हैं, मशीनों के आगे बेकार हैं, हुनर गया तेल लेने ....... जाओ दस में पांच जोड़ी लाओ, पूरे घर को पहनाओ , हमारे बच्चों का एक फाका और सही! तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था में... अर्थ उनका है, व्यवस्था हमारी, माल उनका, बाज़ार हमारा... वे अपना कचड़ा यंहा जमा कर रहे हैं, हम उस कचड़े पर ऐश कर रहे हैं.... हमारे आदमी ले जाओ, पैसा दे जाओ, आदमी का क्या मोल? यंहा हर आदमी टका सेर बिकता है, वाचाल राजा आँखों पर पट्टी बाँध सोता है, हुनरमंद हाँथ ट्रेनों में लटका है, मीडिया की चकाचौंध में असली मुद्दा सटका है, गांधी का रामराज चरखे का चक्कर लगाता है, खीझता है ,थकता है, बेहाल हो बैठ जाता है, सत्य और अहिंसा किताबों में बंद है, गांधी अब संग्रहालय की शान है, महापुरुषों क
मै खड़ा हूँ
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चाहता हूँ तुम्हे लिपिबद्ध कर लूं न जाने कब छिटक कर दूर हो जाओ किसी भूले-भटके विचार की मानिन्द, मै खोजता ही रहूँ तुम्हे चेतना की असीमित परतों में.... तुम्हारी लंबित मुलाकातों में तुमसे ज्यादा ; तुम्हारी अल्लहड़ हंसी होती है, वो बेसाख्ता मुस्कुराती हुयी पलकें जैसे थाम लेती हैं मन की उड़ान. तुम्हारी उँगलियों में कसमसाती है धूप; और तुम बाहें फैलाए उड़ा देती हो उसे इन्द्रधनुषीय रंगों में, चाहता हूँ सहेज लूं तुम्हारी वो आग जो बोलते ही राख में भी जान डाल देती है, कौंधती है बिजली की तरह, मेघ बन बरस जाती है बंजर धरती पर. तुम्हारा होना आज भी है फुलके की वाष्प सा नर्म-गर्म ...... कि दौड़ जाता हूँ बार-बार उसी मोड़ पर;जंहा तुमने कहा था.... रुको, अभी आती हूँ और छिटक गयी थी हाँथ से दूर. जब भी लौटोगी पाओगी वंही, मील के पत्थर सा अब भी गड़ा हूँ तुम्हारी लंबित मुलाक़ात के लिए अब भी खड़ा हूँ.