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मार्च, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अंत हुआ तो ख़ाली दामन

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फूल यूं मुस्कुराये कि गिर गए शाख़ को गमज़दा छोड़कर,  तितलियां आजकलनहीं आती झर रहीं पत्तियां बेसबब यूं ही। रात तूफ़ां ने यूं क़यामत की झुग्गियां उजड़ी, मर गयी साँसे, गिर गए ईमान संग दरख़्त कितने कब्र खोदी और छुप गयीं खुशियां। धूप की चिन्दियाँ यूं बिखरी हैं जैसे सोना बिछा हो धरती पर, मुट्ठियाँ बांधता मुसाफ़िर जब धूप साये सी हाँथ नहीं आती । वजन में दो गुनी हुईं बातें काफ़िले हाकिमों के घेरे हैं, गिनती निवालों की हो रही है यहाँ जिनसे उम्मीद वो मुंह को फेरे हैं। कोठियां भर गयी हैं नोटों से दिल है सूना के नींद नहीं आती, उम्र भर लूटता रहा दौलत आज लगता के हाँथ खाली है। (Image credit google)

धार्मिक तन्हाई का दंश

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धर्म का लाउडस्पीकर जब उड़ेलता है उन्माद का गंदा नशा हाँथ पैर हो जाते हैं अंधे, नौजवान खून उबाल मारता है, मासूम हाँथ रंग जाते हैं अपनों के खून से, ज़ालिम दिमाग़ कोनों में मुस्कुराते हैं, राजनीति की रोटियां सिंकती हैं बेगुनाहों की चिता पर, का नून के हांथ आये नादान लोग जेल की तन्हाई में काटते हैं जवानी, पैदा होती है अपराधियों की एक और पौध, कुछ और शातिर दिमाग सीखते हैं मक्कारी, चल पड़ते हैं उसी राह पर कि दूर कर दो बच्चे को बच्चे से, फ़िर कभी धर्म के नाम पर खुशियां न मन सकें. (Image credit google)

तेरी सुरमयी याद में गुलाबी हम

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 प्रेम के पैरहन में खूबसूरत लड़ियाँ पड़ीं है हमारे स्पर्श की,  नैनों ने कहा कुछ.... कि अफ़सानों ने चलना शुरू किया, रात की उतरन ने गुलाबी सूरज थमाया हरी चूड़ियों ने बोये कुछ कचनार  रजनी गंधा की कलियां चहकीं  घुल गयीं साँसों के संग मैं.. बेतरतीब सी ....  आँचल संभाले दौड़ती हूँ ; वक्त को गोद में उठाने  और तुम...... हवाओं का पीछा करते हो. भीना भीना है सब कुछ, उम्मीदों के बाग़ बहार की प्रतीक्षा में हैं कपाटों की झिरी से झांकती है मनुहार सुरमयी आँखों ने  रुपहले ख़ाब बुने हैं ... कि   तुम्हारी कश्ती इस बार  मेरी ही जमीन में लगेगी और हम  नदियों से सागर होने की यात्रा करेंगे...

कल वाले लेमनचूस!

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थोड़ा पागलपन भेजवादो और ज़रा से लेमनचूस, जीवन इतना खट्टा हो गया दिल के इन गड्ढों से पूछ।  भोर का सूरज जगा नहीं है  चंदा निदिया को तरसे, फूल गंध से बिछड़ गए हैं बादल पूछें क्यों बरसें। कोई आकार कह दो इनसे  दो पल का ही जीवन है  कह लो सुन लो एकदूजे से,  सारी उम्र न जाए बीत।  बीत गयी जो बात गयी  कुछ मुस्कानें सजवा दो,  पतझड़ जैसी शामों में  नूतन कलियां खिलवा दो।  बचपन वाली सीखें कहती  कहा सूनी पर मिट्टी डाल, प्यार की झप्पी ले दे करके सबके मन का जाने हाल। बाहर का तो बहुत हो गया अंतर चेहरा दिखला दो, हर मन में इक दर्पण है उस को उजला करवा लो।

शून्य हैं हम

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हर गिरता हुआ पत्त्ता करता है शाख़ से बेपनाह मोहब्बत,  होता है उदास अपने विलग होने से, शाख़ भी मनाती है शोक; रोती है, उदास होती है, देखती है जमीं पर उन्हें मरते हुए..... एक दिन समझ लेती है वो भी  धोखा नहीं.... समय का दस्तूर है कि छूट ही जाते हैं अपने  कभी न कभी.... उम्र और ज़िंदगी मेहरबान नहीं रहती हमेशा,  समय करता है सवाल जवाब भी खुद लिखता है..... हम तो बस शून्य हैं.... समय की दहाइयों के मोहताज शाख़ से गिरे पत्तों की मानिंद कभी ऊपर.... कभी नीचे .... (चित्र साभार google)

प्रणय रंग की बतियाँ

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मेरे अधरों पर जब उनके गीत निखरते हैं, मैं उनमे वो मुझमें कुछ ऐसे बसते हैं,  वासंती मदमस्त हिलोरें उठती नैनों में,  मेरे हिय में उनकी साँसे जीवन रचती हैं. रंग रंग के फूल खिले हैं रंगीला है मौसम,  धरती अम्बर डोल रहे हैं बदरी नाचे छम-छम,  कोयल कूके बागन में और बंसी नदिया नारे,   प्रियतम के रंग ने रंग डारे रतिया, चंदा, तारे. कानों में हर आहट कहती वो संदेशा आया,  मन में मेरे मधुरस घोले ऐसा नेह है लाया,  हुए बावरे नैन रंगीले अपनी सुध-बुध खोये,  घूंघट के पट खोल नजरिया अंखियाँ खोले सोये.  ऐसी प्रीत का घूँट पिया है मीरा बन कर डोली  पिय के रंग में रंगी दुल्हनिया लाज-शर्म सब भूली  प्रणय रंगों में खोकर, छुपकर प्रियतम को रंग आयी  खुद को खोकर उसको पाया ऐसी रीत बनायी।  (चित्र साभार google)

वे गायब हैं!

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एक सच यह है  कि...... बलात्कृत स्त्री साँसे नहीं लेती,  हवाओं में चेहरा नहीं उठाती, नज़रें नहीं मिलाती खुद से  समझती है खुद को मृत  जबकि; बलात्कार सिर्फ स्त्री का नहीं होता.....  बलात्कार होता है सामाजिक मूल्यों  का, परवरिश की नींव खोखली हो जाती है, हर पुरुष के चेहरे पर उग आते हैं प्रश्नचिन्हों के कैक्टस !!!!  झुकी हुयी नज़रें उठ नहीं पाती, विश्वास काली पट्टियाँ बाँध  निकालता है जुलूस  और स्त्रियां..... अपने शरीरों से गायब हो जाती हैं .... (image credit shutterstock)

मुझे लिखा जाना बाकी है अभी!

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मैं एक ख़त हूँ; मुझे लिखा जाना बाकी है अभी, गुलाबी सफहों के ज़िस्म में ढलकर सुर्ख स्याही के मोतियों से सजकर मेरा पैग़ाम बन इठलाना बाकी है अभी, हयात चार दिनी और बची है मुझमें उसके हांथों में लरजता हुआ टुकड़ा हूँ मै,  जाने कब दिल का हाल सुनाएगी मुझे  अपने अजीज़ का हाल बताएगी मुझे  जानता हूँ जब भी लिखेगी मुझको वो शर्म से खुद में ही बार-बार सिमट जायेगी  हर एक हर्फ़ के बाद खुद से पूछेगी  कोरे कागज़ को एहसास बताना गुस्ताख़ी तो नहीं?  न मुझमे जान है,न साँसे हैं कि कह सकूं उससे  मुझ पर एतबार करे और दिले ग़ुबार लिखे, रखूंगा राज़ हर शै से बचाकर तब तक उसकी स्याही के रंग नहीं बुझते मुझमें मै एक ख़त हूँ इंसां नहीं के मुकरूंगा बस एक बार वो मुझ पर ज़रा ऐतबार करे।। (image credit google)