भीड़ का ज़मीर
मैं इस बार मिलूँगी भीड़ में निर्वस्त्र, नींद जब भाग खड़ी होगी दूर आँख बंद होने पर दिखेगी सिर्फ भीड़, बाहें पसारते ही सिमट जायेगा तुम्हारा पौरुष, तब, झांकना अपने भीतर एक लौ जलती मिलेगी वंही; जंहा, जमा कर रखा है तुमने मुझे, बरसों बरस..... सूखी रेत पर झुलसते पैरों तले, जब बुझा दिए गए थे सम्मान के दीप्त दिए, जब सड़क पर भाग रही थी अकेली स्त्री, हजारों दानवों के बीच, मैं मर गयी थी तुम्हारे भीतर; एक लाश अटकी है तुम्हारी पुतलियों पर उठाओ!!! क्या तुम्हारे ज़मीर से ज्यादा भारी है, सड़ी हुयी लाशें भारी हो जाती हैं, और सड़ा हुआ जमीर.... भीड़ का कोई जमीर नहीं होता ।। #Aparna Bajpai