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भीड़ का ज़मीर

मैं इस बार मिलूँगी भीड़ में निर्वस्त्र, नींद जब भाग खड़ी होगी दूर आँख बंद होने पर दिखेगी सिर्फ भीड़, बाहें पसारते ही सिमट जायेगा तुम्हारा पौरुष, तब, झांकना अपने भीतर एक लौ जलती मिलेगी वंही; जंहा, जमा कर रखा है तुमने मुझे, बरसों बरस..... सूखी रेत पर झुलसते पैरों तले, जब बुझा दिए गए थे सम्मान के दीप्त दिए, जब सड़क पर भाग रही थी अकेली स्त्री,  हजारों दानवों के बीच, मैं मर गयी थी तुम्हारे भीतर; एक लाश अटकी है तुम्हारी पुतलियों पर उठाओ!!! क्या तुम्हारे ज़मीर से ज्यादा भारी है, सड़ी हुयी लाशें भारी हो जाती हैं, और सड़ा हुआ जमीर.... भीड़ का कोई जमीर नहीं होता ।। #Aparna Bajpai

अटल जी की अवधी बोली में लिखी कविता

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मनाली मत जइयो मनाली मत जइयो, गोरी  राजा के राज में जइयो तो जइयो,  उड़िके मत जइयो,  अधर में लटकीहौ,  वायुदूत के जहाज़ में. जइयो तो जइयो,  सन्देसा न पइयो,  टेलिफोन बिगड़े हैं,  मिर्धा महाराज में जइयो तो जइयो,  मशाल ले के जइयो,  बिजुरी भइ बैरिन  अंधेरिया रात में जइयो तो जइयो,  त्रिशूल बांध जइयो,  मिलेंगे ख़ालिस्तानी,  राजीव के राज में मनाली तो जइहो.  सुरग सुख पइहों.  दुख नीको लागे, मोहे  राजा के राज में।

बस एक ख़्वाब था छू ले कोई!

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बस एक ख़्वाब था छू ले कोई , सहला दे ज़रा इन ज़ख्मों को इक लम्हा अपना दे जाये और बाँट ले मेरे अफ़सानों को। कुछ नाज़ुक शब्द पिरोकर के एक हार मुझे पहना जाएँ, कुछ सच्ची -मुच्ची बातों से  वो मेरा दिल बहला जाएँ। कुछ सूरत ऐसी बन जाए वो बैठे मेरे पहलू में, मैं एक नदिया बन बह जाऊं  वो एक समुन्दर हो जाएं। कुछ रेत अभी भी बाक़ी है कुछ किरचें आँखों में चुभतीं, कुछ छाले दुखते हैं अब भी, कुछ दर्द अभी भी रिसता है। कुछ ख़्वाब अधूरे जाग रहे कुछ उम्मीदें हैं राह तकती, कुछ आस बची है आँखों में कुछ बाकी हैं अलफ़ाज़ अभी। #AparnaBajpai (Image credit google)