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जुलाई, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कारोबार

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जब तुम अट्टालिकाओं की खेती कर रहे थे,     तभी तुमने तबाह कर दिया था;  बूढ़े बरगद का साम्राज्य, पीपल की जमीन को रख दिया था गिरवीं, न जाने कितने पेड़ों को किया था धराशायी, अपनी रौ में ख़त्म कर रहे थे,  अपने ही बच्चों की सांसें.... लो अब काटो अस्थमा की फसलें, कैंसर के कारोबार से माल कमाओ, दिल और गुर्दों का करो आयात- निर्यात, तन का क्या है...... एक उजड़ेगा तो दूसरा मिलेगा मृत्यु शाश्वत सत्य है उससे क्या डर.... प्रकृति रहे न रहे, धरती बचे न बचे,  हमें क्या! बरगद, पीपल , नीम के दिन नहीं रहे, अब ईंटें उगाते हैं, लोहा खाते हैं और अट्टालिकाओं के भीतर जिन्दा दफ़न हो जाते हैं।। #Aparna Bajpai Image credit shutterstock    

स्वाद!

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उनकी टपकती खुशी में छल की बारिश ज़्यादा है, आँखों में रौशनी से ज्यादा है नमी, धानी चूनरों में बंधे पड़े हैं कई प्रेम, ऊब की काई पर तैरती है ज़िंदगी की फसल गुमनाम इश्क़ की रवायत में, जल रही हैं उंगलियां, जल गया है कुछ चूल्हे की आग में, आज खाने का स्वाद लज़ीज़ है। ©Aparna Bajpai (Image credit alamy stock photo)

एक सज़ायाफ्ता प्रेमी

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प्रेम करते हुए अचानक ही वो मूँद लेता है अपनी आँखें और सिसकता है बेआवाज़, हमारे प्रगाढ़ आलिंगन से दूर होता हुआ नज़रें चुराता है, बोलने की कोशिश में, साथ नहीं देते होंठ, बस लरज़ जाती है थोड़ी सी गर्दन, मेरे प्रेम में आकंठ डूबा हुआ मेरा प्रेमी, हार जाता है अपने आप से...कि स्त्री के साथ रहना उसके लिए फांसी है और स्त्री के बिना रहना मौत... पुरुषत्व से बाहर आकर खुल जाता है उसका दर्द, चरम तक पंहुचता हुआ उसका प्रेम, दम तोड़ देता है बीच राह, टूटी हुई चूड़ियों में अब भी लगे हैं ख़ून के धब्बे, उजली चादर पर पसरा है लाल रंग, प्रेम के संगीत में भरी हैं असंख्य चीखें, वो उसके पहले प्रेम की आख़िरी चीख थी, तब से गुमसुम है एक स्त्री उसके भीतर, एक जीती जागती औरत का मृत जिस्म, टंगा है उसकी अंतर्मन की दीवार पर, वो ढो रहा है बलात्कृत स्त्री का दर्द, और हर बार प्रेम में पड़ने के बाद, जब भी छूता है किसी स्त्री का तन, बीच राह भागना चाहता है अपने पुरुषत्व से, आदिम गंध के बीच छला जाता है अपनी संवेदना से, कि पुरुष पुरुष नहीं सज़ायाफ्ता है अब।। #AparnaBajpai (Ima

कविताओं की खेती

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आँगन भर भर संजोती हूँ कवितायेँ, उनके शब्दों में खेल लेती हूँ ताल-तलैया, कभी कभी चाय के कप में उड़ेल कवितायेँ चुस्कियां लेती हूँ उनके भावों की, कवितायेँ भी... पीछा ही नहीं छोड़ती, धमक पड़ती हैं कभी भी मानती ही नहीं बिना लिखवाये, कागज़ की नावों पर सैर कराती मेघ की मल्हार पर कथक करवाती हैं, तबले की थाप और बाँसुरी की धुन बनी, पोर-पोर सरगम सी घुल घुल जाती हैं, शब्दों के बगीचे में खड़ी मेरी कवितायेँ अँखियों में लहू बन उतर-उतर जाती हैं, कागज़ और कलम के बीच अनुभूतियां कविता के बदन में निचुड़- निचुड़ जाती हैं, बारिश के दिनों की रोचक अभिव्यक्तियाँ, नज़्म और कविता बन महक महक जाती हैं, सूखे से सावन और भीगे हुए भादों में कवितायेँ ही मन का मीत बन जाती हैं, उम्र की उल्टी गिनती शुरू होती है जबसे कवितायें तन का संगीत बन जाती हैं, चाहती हूँ..... बस यही शब्दों की खेती से; खेतों खलिहानों में बीज बन उग जाएंगी, आँगन में संजोयी हुई मेरी सारी कवितायेँ हर भूखे पेट का चैन बन जाएंगी, थके हारे नाविक के चरणों को छू कर के कवितायेँ,उल्लास की देह बन जाएंगी। #AparnaBajp

सूखे मेघ

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