झूठे बाज़ार में औरत
एक पूरा युग अपने भीतर जी रही है स्त्री, कहती है ख़ुद को नासमझ, उगाह नहीं पायी अब तक अपनी अस्मिता का मूल्य, मीडिया की बनाई छवि में घुट-घुट कर होंठ सी लेती है स्त्री, सड़कों पर कैंडल मार्च करती भीड़ में असली भेड़ियों को पहचान लेती है स्त्री चुप है, कि उसके नाम पर उगाहे जा रहे हैं प्रशस्ति पत्र, रुपयों की गठरियाँ सरकाई जा रही हैं गोदामों में, स्त्री विमर्श के नाम पर झूठ के पुलिंदों का अम्बार लग रहा है, लोग खुश हैं! कि रची जा रही है स्त्री की नई तस्वीर, खोजती हूँ कि इस तस्वीर से आम औरत ग़ायब है? (Image credit google)